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गाथा १४४
इस कलश के भाव को नाटक समयसार में इसप्रकार व्यक्त किया गया है।
( सवैया इकतीसा ) जैसै एक जल नानारूप-दरबानुजोग,
भयौ बहु भाँति पहिचान्यौ न परतु है। फिरि काल पाइ दरबानुजोग दूरि होत,
अपनै सहज नीचे मारग ढरतु है। तैसै यह चेतन पदारथ विभाव तासौं,
___गति जोनि भेस भव-भांवरि भरतु है। सम्यक् सुभाई पाइ अनुभौ के पंथ धाइ,
___बंधकी जुगति भानि मुकति करतु है ॥ जिसप्रकार पानी अनेक वस्तुओं के संयोग से अनेकरूप हो जाता है और पहिचानने में नहीं आता, फिर समय आने पर जब संयोग दूर हो जाते हैं, तब अपने स्वभाव में आकर नीचे की ओर बहने लगता है; उसीप्रकार यह चेतन आत्मा विभाव अवस्था में गति, योनि, भेषरूप संसार के भंवरों में भ्रमता रहता है, फिर अवसर आने पर निज सम्यक्स्व भाव को प्राप्त कर, अनुभव के पथ पर लगकर, बंध को नष्ट कर मुक्ति को प्राप्त करता है।
प्रश्न - संस्कृत छन्द का जो भाव ऊपर बताया गया है, उसमें और नाटक समयसार के छन्द के भाव में एकरूपता दिखाई नहीं देती; क्योंकि संस्कृत के छन्द में तो यह कहा है कि पानी अपने समूह से च्युत होकर नीचे की ओर बहता है, किन्तु जब उसे बलपूर्वक ढालवाले मार्ग से मोड़ दिया जाता है, तब वह उसी में आ मिलता है; और यहाँ यह कहा जा रहा है कि वस्तुओं के संयोग से पानी अनेकरूप हो जाता है और संयोग दूर होने पर स्वभाव में आकर नीचे की ओर बहने लगता है। ___ पानी के दृष्टान्त में जो अन्तर है, वैसा ही अन्तर सिद्धान्त में भी दिखाई देता है। इसका कारण क्या है ?
उत्तर - यह तो पहले स्पष्ट किया ही जा चुका है कि बनारसीदासजी नाटक समयसार में सर्वत्र कलश टीका का अनुसरण करते हैं। लगता है यहाँ