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समयसार अनुशीलन
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"जैसे पानी,अपने पानी के निवासस्थल से किसी मार्ग से बाहर निकलकर वन में अनेक स्थानों पर बह निकले और फिर किसी ढलानवाले मार्ग द्वारा ज्यों का त्यों अपने निवास स्थान में आ मिले; इसीप्रकार आत्मा भी मिथ्यात्व के मार्ग से स्वभाव से बाहर निकलकर विकल्पों के वन में भ्रमण करता हुआ, किसी भेदज्ञानरूपी ढालवाले मार्गद्वारा स्वयं ही अपने को खींचता हुआ, अपने विज्ञानघनस्वभाव में आ मिलता है।" ___ पानी का स्वभाव नीचे की ओर बहना है; अतः अपने समूह से विलग होकर गहन वन में नीचे की ओर बहनेवाले पानी का दुबारा उसी जलसमूह में आ मिलना आसान नहीं है; तथापि यदि उसे बलपूर्वक ढालवाले मार्ग से उसी ओर मोड़ दिया जाय, जहाँ से वह जलसमूह से विलग हुआ था, तो वह उसी जलसमूह में आ मिलता है। यद्यपि यह काम आसान नहीं है; तथापि सम्भव है, असम्भव नहीं।
इसीप्रकार अपने विज्ञानघनस्वभाव से भ्रष्ट विकल्पजाल के गहन वन में भ्रमित आत्मा का आत्मसम्मुख होना आसान नहीं है; तथापि यदि उसको भी विवेकरूपी ढालवाले मार्ग से निज विज्ञानघनस्वभाव की ओर बलपूर्वक मोड़ दिया जाय तो वह भी आत्मानुभव करने में समर्थ हो सकता है। तात्पर्य यह है कि आत्मानुभव की विधि ही यह है कि हम अपने उपयोग को पुरुषार्थपूर्वक स्वस्वभाव की ओर मोड़ें आत्मसन्मुख करें। . १४४ वीं गाथा की टीका में भी यही कहा था कि पाँच इन्द्रियों और मन के माध्यम से विषय-कषाय में उलझे मतिज्ञान को उनसे हटाकर बलपूर्वक आत्मसन्मुख करे और नाना नयों के विकल्पों में उलझे श्रुतज्ञान को भी आत्मसन्मुख करे, तब ही आत्मानुभव होता है। उसी बात को इस कलश में कह रहे हैं कि अपने उपयोग को बलपूर्वक आत्मसन्मुख करो; क्योंकि आत्मानुभव करने की यही रीति है, यही विधान है, यही उपाय है।
यह पुरुषार्थ की प्रेरणा देने वाला कलश काव्य है। यह पुरुषार्थ भी अन्य कुछ भी नहीं; मात्र परसन्मुख अपने उपयोग को बलपूर्वक आत्मसन्मुख करना ही है।