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समयसार अनुशीलन
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जो अज्ञानीजीव अनादिकाल से अपने विज्ञानघनस्वभाव से भ्रष्ट हुआ प्रचुर विकल्परूपी गहन वन में दूर-दूर तक भटक रहा था, अनेकप्रकार के विकल्प के रागजाल में स्वतः उलझ रहा था; दया, दान, व्रत आदि शुभपुण्यरूप तथा हिंसादि अशुभ-पापरूप अनन्तप्रकार के शुभाशुभ विकल्पों या अनेकप्रकार के नय विकल्पों के इन्द्रजाल में स्वयं अपने विभाव स्वभाव में अटक रहा था; वह तत्त्वज्ञान के बल से उसे दूर से ही छोड़कर अर्थात् रागादि से मिले बिना ही अपने उपयोग को स्वभाव में जोड़ देता है। भेदज्ञान द्वारा प्राप्त अपने बल से ही अपने चैतन्यस्वभाव की ओर झुक जाता है।
श्लोक में ऐसा पाठ है कि 'विवेक निम्नगमनात्' - इसका अर्थ यह है कि भेदज्ञानरूपी मार्ग द्वारा स्वयं अपने ज्ञानघनस्वभाव में आ मिलता है। ढालवाला मार्ग अर्थात् भेदज्ञानरूप गंभीर मार्ग, इसके द्वारा स्वरूप में आ मिलता है।
भेदज्ञानरूपी जो गंभीर ढालवाला मार्ग है, वह अन्तर्वभाव की ओर जानेवाला मार्ग है; और विकल्प पर की ओर जानेवाला मार्ग है। भेदज्ञान द्वारा जिसको स्वभाव का आश्रय हो जाता है, वह विकल्पों से भिन्न होता है, फिर उसे विकल्पों का कर्तृत्व नहीं रहता। अज्ञानी दया, दान, व्रत आदि शुभ विकल्पों को अपना स्वरूप मानकर विकल्पों का कर्ता बनकर निज चैतन्यस्वरूप से भ्रष्ट होकर विकल्पवन में चिरकाल तक परिभ्रमण करता है।" - पानी का समूह तो समुद्र, नदी, झील और तालाब - सभी में होता है; तथापि स्वामीजी ने जलौघ का अर्थ नदी ही किया है, जो उपयुक्त ही है; क्योंकि समुद्र, झील और तालाब का पानी यदि अपने समूह से च्युत होकर नीचे की
ओर बह जावे तो यांत्रिक प्रयोग के बिना उसका उसी जलसमूह में मिलना संभव नहीं है; परन्तु निजसमूह से च्युत नदी के पानी को ढालवाले मार्ग से उसी जलसमूह में मिलाना बिना यंत्र के भी संभव है; क्योंकि नदी का पानी
१. प्रवचनरत्नाकर, भाग ४, पृष्ठ ३७८ २. वही, पृष्ठ ३७९ ३. वही, पृष्ठ ३७९-३८०