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गाथा १४४
अनुचित भी नहीं है। संक्षेप में यहाँ भी यही कहा जा रहा है कि नयपक्षातीत . समयसार ही सम्यग्दर्शन है, सम्यग्ज्ञान है, अनुभव है और इसी अनुभव के गीत गाये गये हैं नाटक समयसार के इस छन्द में। अब आगामी कलश में यह कहते हैं यह आत्मानुभव कैसे होता है ?
(शार्दूलविक्रीडित) दूरं भूरि विकल्पजालगहने भ्राम्यन्निजौघाच्च्युतो । दूरादेव विवेकनिम्नगमनान्नीतो निजौघं बलात् ॥ विज्ञानकरसस्तदेकरसिनामात्मानमात्मा हरन् । आत्मन्येव सदा गतानुगततामायात्ययं तोयवत् ॥९४॥
(हरिगीत ) निज औघ से च्युत जिसतरह जल ढालवाले मार्ग से। बलपूर्वक यदि मोड़ दें तो आ मिले निज औघ से ॥ . उस ही तरह यदि मोड़ दें बलपूर्वक निजभाव को।
निजभाव से च्युत आत्मा निजभाव में ही आ मिले ॥९४॥ जिसप्रकार पानी अपने समूह से च्युत होता हुआ दूर गहन वन में बह रहा हो, उसे दूर से ही ढालवाले मार्ग के द्वारा अपने समूह की ओर बलपूर्वक मोड़ - दिया जाय, तो वह पानी पानी को पानी के समूह की ओर खींचता हुआ, प्रवाहरूप होकर अपने समूह में आ मिलता है; उसीप्रकार यह आत्मा अपने विज्ञानघनस्वभाव से च्युत होकर प्रचुर विकल्पजालों के गहन वन में दूर-दूर तक परिभ्रमण कर रहा था, उसे दूर से विवेकरूपी ढालवाले मार्ग द्वारा अपने विज्ञानघनस्वभाव की ओर बलपूर्वक मोड़ दिया गया। इसलिए विज्ञानघन आत्मा का रसिक आत्मा आत्मा को आत्मा की ओर खींचता हुआ, ज्ञान को ज्ञानी की ओर खींचता हुआ प्रवाहरूप होकर सदा विज्ञानघनस्वभाव में आ मिलता है।
इस कलश के भाव को पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा भावार्थ में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं -