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गाथा १४४
भयों के पक्षों से रहित, अचल, निर्विकल्पभाव को प्राप्त होता हुआ जो समय का सार प्रकाशित करता है, वह यह समयसार (शुद्धात्मा) है, जो कि निभृत (आत्मलीन-निश्चल) पुरुषों के द्वारा स्वयं आस्वाद्यमान है, उनके अनुभव में आता है और विज्ञान ही जिसका एक रस है - ऐसा भगवान आत्मा पवित्र है, पुराणपुरुष है। उसे ज्ञान कहो या दर्शन, चाहे जो कुछ भी कहो, वह ही सारभूत है। अधिक क्या कहें - जो कुछ है, वह एक ही है।
इस कलश में यह कहा जा रहा है कि विगत गाथाओं में जिस नयपक्षातीत भगवान आत्मा की चर्चा की गई है, वह भगवान आत्मा पुण्यस्वरूप है अर्थात् पवित्र है; पुराण है अर्थात् अत्यन्त प्राचीन है, अनादि-अनन्त है; पुमान है अर्थात् पुरुष है, पौरुष से युक्त है, अनन्तगुणवाला है; अचल है अर्थात् अपने स्वरूप से कभी चलायमान नहीं होता; अविकल्पभावरूप है अर्थात् निर्विकल्प
चैतन्यवस्तुरूप है, विकल्पजाल में उलझनेवाला नहीं है, विकल्पों से प्राप्त होनेवाला नहीं है। शुद्धभावरूप-निर्विकल्पभावरूप परिणमता हुआ, विज्ञान ही एक है रस जिसका और जो निभृत पुरुषों द्वारा, आत्मानुभवी ज्ञानियों द्वारा; आस्वाद्यमान है, अनुभव योग्य है; - ऐसा वह भगवान आत्मा ही दर्शन है, ज्ञान है; सम्यग्दर्शन है, सम्यग्ज्ञान है। अधिक क्या कहें - जो कुछ भी है, वह एक आत्मा ही है।
इसप्रकार यह कलश दृष्टि के विषयभूत, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के एकमात्र मूलाधार भगवान आत्मा की महिमा बतानेवाला कलशकाव्य है।
इस कलश का भाव स्पष्ट करते हुए पाण्डे राजमलजी लिखते हैं -
"भावार्थ इसप्रकार है कि जितना नय है, उतना श्रुतज्ञान है; श्रुतज्ञान परोक्ष है, अनुभव प्रत्यक्ष है; इसलिए श्रुतज्ञान बिना जो ज्ञान है, वह प्रत्यक्ष अनुभवता है। इसकारण प्रत्यक्षरूप से अनुभवता हुआ जो कोई शुद्धस्वरूप आत्मा है, वही ज्ञानपुंज वस्तु है, - ऐसा कहा जाता है।" ___ इसी का अनुकरण करते हुये बनारसीदास नाटक समयसार में इस छन्द का भावानुवाद इसप्रकार करते हैं -