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समयसार अनुशीलन
भी वचन विकल्प हो सकते हैं, उतने ही नय भी हो सकते हैं। जैसाकि गोम्मटसार में कहा गया है -
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'जावदिया वयणवहा तावदिया चेव होंति णयवादा।
जितने वचन - विकल्प हैं, उतने ही नयवाद हैं, अर्थात् नय के भेद हैं।' ज्यों-ज्यों नयों के विस्तार में जाते हैं, त्यों-त्यों मन के विकल्प भी विस्तार को प्राप्त होते हैं, चंचलचित्त लोकालोक तक उछलने लगता है। ज्ञानी जीव इसप्रकार के नयों के पक्ष को छोड़कर, समरसीभाव को प्राप्त होकर, आत्मा के एकत्व में अटल होकर, महामोह का नाश कर, शुद्ध अनुभव के अभ्यास से निजात्मबल प्रगट करके पूर्णानन्द में लीन हो जाते हैं।
इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि नयविकल्पों के विस्तार से उपयोग समेट कर जब आत्मा स्वभावसन्मुख होकर, निर्विकल्पज्ञानरूप परिणमित होता है; तभी अतीन्द्रिय आनन्द का अनुभव करता है।
इस कलश के अर्थ में भी कलशटीकाकार ने निश्चय - व्यवहारनय न लेकर द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनय लिए हैं। इस सन्दर्भ में विस्तृत चर्चा गत कलश हो ही चुकी है। अतः अब यहाँ कुछ भी लिखने की आवश्यकता नहीं है। अब नय पक्ष के त्याग की भावना का अन्तिम काव्य कहते हैं - ( रथोद्धता )
इन्द्रजालमिदमेवमुच्छलत् पुष्कलोच्चलविकल्पवीचिभिः । यस्य विस्फुरणमेव तत्क्षणं कृत्स्नमस्यति तदस्मि चिन्महः ॥ ९९ ॥ ( दोहा )
इन्द्रजाल से स्फुरें, सब विकल्प के पुंज ।
जो क्षणभर में लय करे, मैं हूँ वह चित्युंज ॥ ९१ ॥
विपुल, महान, चंचल विकल्परूपी तरंगों के द्वारा उड़ते हुए इस समस्त इन्द्रजाल को जिसका स्फुरण मात्र ही तत्क्षण उड़ा देता है, वह चिन्मात्र तेजपुंज मैं हूँ ।
१. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ८९४