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गाथा १४३
बंध की चर्चा को पुद्गल की कृति जानकर, उससे उपयोग को हटा लीजिए। इसी में सार है और सब असार है, संसार है।
ज्ञानप्रधान कथन होने से ही यहां यह कहा गया है कि जिस चित्पुंज आत्मा के द्वारा अपने उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य किये जाते हैं, मैं उस समयसाररूप आत्मा का अनुभव करता हूँ। . ... ... .
उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी का स्पष्टीकरण इसप्रकार है. -
"अहा! त्रिकाली ज्ञायक चैतन्यस्वभावरूप आत्मा अपने उत्पाद-व्ययध्रौव्य स्वभाव के द्वारा ही नवीन अवस्थारूप उत्पाद, एक समयपूर्व की पुरानी अवस्था के अभावरूप व्यय तथा स्थिरतारूप ध्रुवस्वभाव से अनुभव में आता है।
यह ज्ञानप्रधान कथन है; अतः कहते हैं कि चित्स्वभाव आत्मा के द्वारा ही आत्मा का उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य होता है, व्यवहार के विकल्पों द्वारा नहीं।
यहाँ कहते हैं कि ज्ञानस्वभाव का पुंज भगवान आत्मा स्वयं अपने से ही उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप परिणमता है अर्थात् ध्रुवरूप से रहता है और उसी के आश्रय से निर्मल वीतरागी पर्याय का उत्पाद होता है।"
इसप्रकार यह सुनिश्चित हुआ कि दृष्टिप्रधान कथन में तो भगवान आत्मा को पर और पर्यायों से पार ही बताया जाता है, उत्पाद-व्यय निरपेक्ष ही बताया जाता है; किन्तु ज्ञानप्रधान कथन में उसे उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्व वी भी बताया जाता है।
१. प्रवचनरत्नाकर, भाग ४, पृष्ठ ३५० २. वही, पृष्ठ ५५१
विरोधियों का बिखर जाना कोई विजय ही नहीं है, यह तो नकारात्मक पहलू है। विरोध का समाप्त हो जाना भी पूरी विजय नहीं है; अपितु सबका || सत्य के प्रति, तत्त्व के प्रति प्रेम हो जाना ही सच्ची विजय होगी।
- सत्य की खोज, पृष्ठ २४७