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समयसार अनुशीलन
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_ यहाँ कहते हैं कि भाई ! जो मतिज्ञान अभी तक मन और इन्द्रियों की ओर . झुका है, उसे वहाँ से हटाकर आत्मसन्मुख कर ! यह एक बोल हुआ। श्रुतज्ञान के अनेक प्रकार के नयपक्षों के आलम्बन से अनेक प्रकार के विकल्प उत्पन्न होते हैं। मैं अबद्ध हूँ, मैं बद्ध हूँ; मैं शुद्ध हूँ, मैं अशुद्ध हूँ; इत्यादि नयपक्ष के विकल्प तो आकुलता उत्पन्न करनेवाले हैं ही; परन्तु मैं अबद्ध हूँ - ऐसे स्वरूप संबंधी विकल्प भी आकुलता उत्पन्न करनेवाले ही हैं। व्रत, तप, भक्ति आदि के राग तो आकुलता उत्पन्न करते ही हैं; परन्तु नयपक्ष का राग भी आकुलता उत्पन्न करता है, दुःखदायी है।
मात्र शुद्ध ज्ञानघनस्वरूप भगवान आत्मा में राग और दुःख नहीं है। श्रुतज्ञान के विकल्प से उत्पन्न हुई आकुलता आत्मवस्तु में नहीं है। मैं पूर्ण हूँ, शुद्ध हूँ - ऐसे जो विकल्प उठते हैं, वे आत्मा से भिन्न हैं। इन विकल्पों से भी भिन्न
आत्मा का अनुभव सम्यग्दर्शन है।' ___ यहाँ तो यह कहते हैं कि आकुलता को उत्पन्न करनेवाले नयपक्ष के विकल्पों से भगवान आत्मा भिन्न हैं । ऐसा स्वरूप निर्विकल्प अनुभव से प्रसिद्ध होता है, इसकारण श्रुतज्ञान की बुद्धियों को भी मर्यादा में लेकर अर्थात् श्रुतविकल्प से हटाकर श्रुतज्ञानतत्त्व को भी आत्मसन्मुख करो- ऐसा कहा है।
श्रुतज्ञान की बुद्धियाँ अर्थात् ज्ञान की दशायें, जो नयज्ञान में उलझी पड़ी थीं, उन्हें वहाँ से समेटकर स्वसन्मुख करने को कहा है।
जिससमय आत्मा अनेक विकल्पों द्वारा आकुलता उत्पन्न करनेवाली श्रुतज्ञान की बुद्धियों को भी मर्यादा में लेकर श्रुतज्ञानतत्त्व को आत्मसन्मुख करता है; उसी समय आत्मा भलीभांति दिखाई देने लगता है। विकल्प बहिर्मुखभाव हैं, जो विकल्पों में ही अटका रहता है, वह बहिरात्मा है।'
१. प्रवचनरत्नाकर, भाग ४, पृष्ठ ३६१-३६२ २. वही, पृष्ठ ३६२ ३. वही, पृष्ठ ३६३