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गाथा १४४
"सर्वप्रथम वीतराग-सर्वज्ञ परमात्मा द्वारा कहे गये, गणधरदेव द्वारा गूंथे गये एवं तदनुसार कुन्दकुन्दाचार्यादि दिगम्बर सन्तों द्वारा रचे गये शास्त्रों के अवलम्बन से ज्ञानस्वभाव आत्मा का निश्चय करना चाहिए। निर्विकल्प अनुभव के लिए पहले विकल्प द्वारा ज्ञानस्वभावी आत्मा का निर्णय करने को कहा है। इससे ऐसा नहीं समझना कि यह विकल्पात्मक निर्णय निर्विकल्प अनुभव का कारण है, बल्कि यह जानना कि निर्विकल्प अनुभव के पहले विकल्पात्मक निर्णय होता ही है। प्रथम भूमिका में श्रुतज्ञान के अवलम्बन से राग मिश्रित विचार द्वारा यह निर्णय होता है कि - 'मैं त्रिकाली शुद्ध ज्ञानस्वभावी नित्यानन्दस्वरूप प्रभु आत्मा हूँ।' __'श्रुतज्ञान के अवलम्बन से' - इसका अर्थ यह है कि सर्वज्ञदेव एवं निर्ग्रन्थगुरु आगम द्वारा जो बात कहते हैं, उसे सुनकर आत्मार्थी जीव पहले विकल्प में ऐसा निर्णय करता है कि मैं विकल्पों से लेकर समस्त लोकालोक से भिन्न शुद्ध ज्ञानस्वभावी हूँ। इसे जानकर सर्वप्रथम वह मन में विकल्पात्मक निर्णय करता है। सम्यग्दर्शन का होना तो बाद की बात है, यह तो विकल्पात्मक निर्णय करने की बात है।
आत्मा के अनुभव की शुरुआत जिसे करनी हो, जिसे सम्यग्दर्शन प्रगट करना हो; उसे प्रथम श्रुतज्ञान के अवलम्बन से ज्ञानस्वभावी आत्मा का निश्चय करना चाहिए।
जिन्हें सम्यग्दर्शन प्रगट करना है, वे सर्वप्रथम श्रुतज्ञान के अवलम्बन से स्वरूप का निश्चय करते हैं। पश्चात् पाँच इन्द्रिय व मन द्वारा परपदार्थों की प्रसिद्धि करनेवाले ज्ञान को मर्यादा में लेते हैं और मतिज्ञान को आत्मसन्मुख करते हैं। मतिज्ञान को परज्ञेयों से हटाकर स्वज्ञेय में जोड़ते हैं, यही आत्मानुभव की विधि की प्रक्रिया है।
१. प्रवचनरत्नाकर, भाग ४, पृष्ठ ३५९-३६० २. वही, पृष्ठ ३६१