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समयसार अनुशीलन
जबतक आत्मा का स्वरूप विकल्पात्मक ज्ञान में भलीभाँति स्पष्ट नहीं होगा, तबतक आत्मानुभूति की प्रक्रिया सम्पन्न होना संभव नहीं है ।
आत्मा का लक्षण उपयोग है। अतः ज्ञान-दर्शन उपयोग लक्षण से आत्मा को जानना चाहिए; क्योंकि लक्ष्य की पहिचान लक्षण से ही होती है। यह जानना चाहिए कि जो जानता - देखता है, वही आत्मा है। आत्मा को देहवाला, कुटुम्ब - परिवारवाला, राग-द्वेषवाला जानना - यह आत्मा की सही पहिचान नहीं है। आत्मा को संयोगों से नहीं जानना है, अपितु असंयोगी आत्मतत्त्व को उसके ज्ञानस्वभाव से जानना है। यह जानना है कि आत्मा जानने-देखने के स्वभाववाला पदार्थ है। आत्मा का स्वभाव स्वपरप्रकाशक है, स्वपर को जानना - देखना मात्र है; पर में कुछ करना या रागादिभाव करना आत्मा का स्वभाव नहीं है। यह बात श्रुतज्ञान से जानना है और आत्मा को ज्ञानस्वभावी जानना है, जानने-देखने के स्वभाववाला जानना है।
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जब श्रुतज्ञान के माध्यम से ज्ञानस्वभावी आत्मा जान लिया जाय तो फिर उसके बाद मतिज्ञान और श्रुतज्ञान रूप ज्ञाने पर्यायों को बाह्य विषयों में से समेट कर आत्मसम्मुख करना है । मतिज्ञान पाँच इन्द्रियों और मन के माध्यम से परपदार्थों को जानने में उलझा है और श्रुतज्ञान नानाप्रकार के नयविकल्पों में उलझकर रह गया है, आकुलित हो रहा है। इन दोनों ही ज्ञानों को मर्यादा में लाकर आत्मसन्मुख करना है। आत्मानुभूति प्राप्त करने का यही उपाय है।
जब यह मतिज्ञान और श्रुतज्ञान निर्विकल्प होकर आत्मसम्मुख होते हैं, तब तत्काल ही समयसारस्वरूप भगवान आत्मा का दर्शन होता है, ज्ञान होता है; भगवान आत्मा प्रतीति में आता है, अनुभूति में आता है और उसमें अतीन्द्रिय आनन्द का झरना झरता है। आत्मा की इसी परिणति का नाम आत्मानुभूति है, सम्यग्दर्शन है, सम्यग्ज्ञान है। इसकारण आत्मा और आत्मानुभूति एक ही हैं, अभिन्न ही हैं, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान भी आत्मा ही है।
उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी का स्पष्टीकरण इसप्रकार है
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