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गाथा १४२
अब उपर्युक्त २० कलशों के भाव का उपसंहार करते हुए आचार्यदेव ९०वां कलश लिखते हैं; जो इसप्रकार है -
(बसन्ततिलका) . स्वेच्छासमुच्छलदनल्पविकल्पजाला -
मेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षाम् । अन्तर्बहिः समरसैकरसस्वभावं
स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रम् ॥९०॥
( हरिगीत ) उठ रहा जिसमें अनन्ते विकल्पों का जाल है । वह वृहद् नयपक्षकक्षा विकट है विकराल है ॥ उल्लंघन कर उसे बुध अनुभूतिमय निजभाव को।
हो प्राप्त अन्तर्बाह्य से समरसी एक स्वभाव को ॥९०॥ इसप्रकार जिसमें बहुत से विकल्पों का जाल अपने आप उठ रहा है - ऐसी महती नयपक्षकक्षा का उल्लंघन करके ज्ञानी जीव अन्तर्बाह्य से समतारस स्वभाव वाले अनुभूतिमात्र अपने भाव को प्राप्त करते हैं।
उक्त कलश का भावानुवाद बनारसीदासजी ने नाटक समयसार में इसप्रकार किया है -
( सवैया इकतीसा ) प्रथम नियत नय दूजी विवहार नय,
दुहूकौं फलावत अमंत भेद फले हैं। ज्यों-ज्यौं नय फलैं त्यों-त्यों मनके कल्लोल फल,
चंचल सुभाव लोकालोकलौं उछले हैं ॥ ऐसी नयकक्ष ताको पक्ष तजि ग्यानी जीव,
समरसी भए एकतासौं नाहिं टले हैं। . महामोह नासि सुद्ध-अनुभौ अभ्यासि निज,
___बल परगासि सुखरासि मांहि रले हैं ॥ पहला निश्चयनय है और दूसरा व्यवहारनय है। इन दोनों नयों की फलावट करने से, इनके विस्तार में जाने से, इनके अनन्तों भेद हो जाते हैं; क्योंकि जितने