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गाथा १४३
सिवाय सम्यग्दृष्टि जीव को नानाप्रकार के विकल्प उठते ही हैं, इसलिए केवल अनुभव के काल में ही वह विज्ञानघन हुआ है - यह कहा है। यह बात धर्म की प्रारंभिक भूमिका की है अर्थात् चौथे गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि की ही बात , चल रही है। " _ 'मैं शुद्ध हूँ' - ऐसा जो अन्दर विकल्प उठता है, वह अन्तर्जल्प है और बाहर जो वाणी निकलती है, वह बहिर्जल्प है। श्रुतज्ञानी अनुभव के काल में समस्त अन्तर्जल्प व बहिर्जल्परूप विकल्पों को लाँघ चुका है। अहो ! अमृतचन्द्राचार्यदेव ने श्रुतज्ञानी आत्मानुभवी जीव को केवलज्ञानी से तुलना करके समझाया है, गजब का काम किया है।'
जिसमें राग का अंश भी नहीं है, ऐसे शुद्ध चैतन्यमय आत्मा का अनुभव करने वाले को यहाँ पहले परमात्मा कहा, फिर इसके ज्ञानगुण को मुख्य करके ज्ञानात्मा कहा तथा राग से भेदज्ञान कराके उसे ही प्रत्यग्ज्योति कहा, तत्पश्चात् उसे ही आत्मज्योति कहा और अन्त में उसी को अनुभूतिमात्र समयसार कहा है। - पर्याय में बद्ध है, द्रव्य अपेक्षा अबद्ध है; - ऐसा जो वस्तुस्वरूप है, उसे तो अज्ञानी मानता नहीं है और एकान्त से एकपक्ष को ही ग्रहण करता है। पर्याय में अशुद्धता है - ऐसा व्यवहारनय का पक्ष है और द्रव्य त्रिकाल शुद्ध है - ऐसा निश्चयनय का पक्ष है। जो इनमें एक नय को तो माने और दूसरे को न माने, तो वह अज्ञानी है, मिथ्यादृष्टि है। ..
मैं त्रिकाल शुद्ध चैतन्यमय आनन्दकन्द प्रभु हूँ - ऐसा तो जाने नहीं और व्रतादि के शुभराग को ही मात्र ग्रहण करके संतुष्ट रहे, तो वह व्यवहाराभासी मिथ्यादृष्टि है तथा आत्मा शुद्ध आनन्दकन्द प्रभु है' - ऐसा कहे, परन्तु पर्याय में जो रागादि हैं, उन्हें स्वीकार नहीं करे, तो वह निश्चयभासी मिथ्यादृष्टि है तथा दोनों पक्षों को तो ग्रहण करे और आत्मा को ग्रहण न करें, तो वह भी विकल्पों के जाल में उलझा हुआ अज्ञानी मिथ्यादृष्टि ही है। जैन होने की तो
१. प्रवचनरत्नाकर, भाग ४, पृष्ठ ३४४-३४५ २. वही, पृष्ठ ३४७-३४८