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समयसार अनुशीलन
252 "टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्रदेव केवली भगवान का दृष्टान्त देकर समझाते हैं -
(१) जिसप्रकार केवली भगवान विश्व के साक्षी होने से अन्य समस्त लोकालोक के साथ श्रुतज्ञान के अवयवभूत व्यवहार व निश्चयनय के भेदों को भी मात्र साक्षीपने से जानते ही हैं; उसीप्रकार श्रुतज्ञानी भी श्रुतज्ञानात्मक विकल्पमय होते हुए भी पर के ग्रहण के प्रति उत्साह निवृत्त होने से श्रुतज्ञान के अवयवभूत व्यवहार-निश्चय के पक्षों के स्वरूप को मात्र जानते ही हैं। ___(२) जिसप्रकार केवली भगवान निरन्तर प्रकाशमान, सहज, विमल, सकल, केवलज्ञान से सदा स्वयं ही विज्ञानघन होने से श्रुतज्ञान की भूमिका से अतिक्रान्त हैं; उसीप्रकार श्रुतज्ञानी भी अतितीक्ष्ण ज्ञानदृष्टि से ग्रहण करते हुए निर्मल, नित्यउदित, चैतन्यमय आत्मा के अनुभव द्वारा अनुभव के काल में स्वयं ही विज्ञानघन होने से श्रुतज्ञानात्मक समस्त अन्तर्जल्परूप तथा बहिर्जल्परूप विकल्पों की भूमिका से पार को प्राप्त हो गये हैं, उसका उल्लंघन कर गये हैं। .. (३) जिसतरह केवलज्ञानी श्रुतज्ञान की भूमिका से अतिक्रान्तता के कारण समस्त नयपक्ष के ग्रहण से दूर हो गये हैं, किसी भी नयपक्ष को ग्रहण नहीं करते; उसीप्रकार श्रुतज्ञानी भी अनुभव के काल में स्वयं विज्ञानघन होने से समस्त नयपक्ष के ग्रहण से दूर हो गये हैं; इसलिए नयपक्ष ग्रहण नहीं करते।
इसप्रकार उपरोक्त तीन बोलों द्वारा सम्यग्दृष्टि के अनुभव की प्रक्रिया को भगवान केवली के ज्ञाता-दृष्टास्वभाव का उदाहरण देकर समझाया है। उक्त बोलों में केवली व श्रुतज्ञानी को समान बताया है। केवली भगवान को श्रुतज्ञान नहीं है; इसकारण उनके नय नहीं हैं; मात्र वे श्रुतज्ञान के स्वरूप को जानते ही हैं; उसीप्रकार श्रुतज्ञानी को भी आत्मानुभव के काल में व्यवहार-निश्चय का पक्ष छूट गया है, इसकारण वह भी अनुभव के काल में नयपक्ष के स्वरूप को केवल जानता ही है। उसे भी उस समय नयों का विकल्प नहीं रहता।
केवली भगवान तो सदा के लिए पूर्ण विज्ञानघन हो गये हैं, पर सम्यग्दृष्टि केवल अनुभव के काल में ही विज्ञानघन हुआ है। क्योंकि अनुभवकाल के