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समयसार अनुशीलन
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'मैं एक हूँ, शुद्ध चिद्रूप हूँ, अबद्ध हूँ' - ऐसा जो नयविकल्प अर्थात् राग की लगन है, जब वह भी छूट जाती है, तब वीतरागी दशा होकर स्वरूप का श्रद्धान निर्विकल्प होता है। भाई ! यह स्वदया की बात है। आत्मा का जीवन ज्ञान-दर्शन-चारित्रस्वरूप है। राग या विकल्प आत्मा का जीवन ही नहीं है।'
आचार्य कहते हैं कि पहले ज्ञान में ऐसा पक्षपात आता है कि वस्तु यही है, पश्चात् वह पक्षपातरूपविकल्प को मेटकर वस्तु का जो निर्विकल्प अनुभव होता है, वह धर्म है। यह आत्मधर्म की बात है। तत्त्ववेदी धर्मी जीव चित्स्वरूप को चित्स्वरूप से ही निरन्तर अनुभव करता है। एक समय का भी अन्तर पड़े बिना धर्मी को निरन्तर चैतन्यमूर्ति जलहल ज्योतिस्वरूप भगवान आनन्दस्वरूप से ही अनुभव में आता है।
देखो, प्रारम्भ में वस्तुस्वरूप का निर्णय करते समय नय के विकल्प आते ही हैं और आने ही चाहिए; परन्तु जो पुरुष उनके द्वारा वस्तुस्वरूप का निर्णय करके स्वभावसन्मुख होता है, उसे चित्स्वरूप जीव का चित्स्वरूप से ही अनुभव होता है। विकल्पों से पार होकर जो चैतन्य की पर्याय स्वभाव में तन्मय होती है, उसी का नाम सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है। पहले जो ज्ञान पर्याय विकल्प में एकमेक थी, अब ज्ञायक में एकमेक होने लगी है। बस इसी का नाम धर्म है। ज्ञानी को निरन्तर चित्स्वरूप जीव चित्स्वरूप ही अनुभव में आता है।" - उक्त सम्पूर्ण कथन का निष्कर्ष यह है कि तत्त्वविचार के काल में उक्त नयकथनों पर विचार होता है,चिन्तन होता है, मंथन होता है, तत्त्वचर्चा भी होती है; किन्तु अनुभूति के काल में अन्य विकल्पों की बात तो दूर, नयसंबंधी विकल्प भी नहीं होते; क्योंकि आत्मानुभूति निर्विकल्प दशा का नाम है। तात्पर्य यह है कि व्यवहारनय संबंधी विकल्प तो होते ही नहीं, निश्चयनय संबंधी विकल्प भी नहीं होते; क्योंकि आत्मानुभूति सर्वविकल्पों से पार ऐसी निर्विकल्प दशा . है कि जिसमें किसी भी प्रकार के किसी विकल्प को, विचार को कोई स्थान ही नहीं है।
१. प्रवचनरत्नाकर भाग-४, पृष्ठ ३१५ २. प्रवचनरत्नाकर भाग-४, पृष्ठ ३१७ ३. प्रवचनरत्नाकर भाग-४, पृष्ठ ३३४