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गाथा १४२
इस कलश में यह कहा गया है कि मैं तो वह चैतन्य का पुंज चिन्मात्रज्योति भगवान आत्मा हूँ कि जिसके ज्ञान पर्याय में स्फुरायमान होने पर समस्त विकल्पों का शमन हो जाता है, नयों का इन्द्रजाल विलायमान हो जाता है। तात्पर्य यह है कि त्रिकालीध्रुव भगवान आत्मा के आश्रय से ही विकल्पों का जाल समाप्त होता है। अतः एकमात्र वह आत्मा ही श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र गुणों की पर्यायों द्वारा आश्रय करने योग्य है। एकमात्र श्रद्धेय, ध्येय और परमज्ञेय निजभगवान आत्मा ही है।
इस कलश का भावानुवाद नाटक समयसार में कविवर बनारसीदासजी ने इसप्रकार किया है -
( सवैया इकतीसा ) जैसैं काहू बाजीगर चौहटै बजाइ ढोल,
नानारूप धरिक भगल-विद्या ठानी है । तैसें मैं अनादिको मिथ्यात की तरंगनिसाँ,
__ भरम मैं धाई बहु काय निज मानी है ॥ अब ग्यानकला जागी भरम की दृष्टि भागी,
अपनी पराई सब सौंज पहिचानी है। जाकै उदै होत परवान ऐसी भांति भई, ..
निहचै हमारी जोति सोई हम जानी है ॥ जिसप्रकार कोई बाजीगर (इन्द्रजालिया-जादूगर) चौराहे पर ढोल बजाकर भीड़ इकट्ठी करके अनेक रूप धारण करके भगल-विद्या का प्रयोग करता है, जादूगरी दिखाता है, ठग विद्या से लोगों को भ्रम में डाल देता है; उसीप्रकार मैं भी अनादिकाल से मिथ्यात्व की तरंगों से भ्रम में भटककर, आन्दोलित होकर अनेक शरीरों को धारण करता हुआ, उन्हें ही अपना मानता रहा; जिस शरीर में पहुंचा, उसे ही अपना मानकर आज तक भटकता रहा हूँ; किन्तु अब मेरे चित्त में ज्ञान कला जाग गई है, भ्रम की दृष्टि भाग गई है, अपने और पराये की सच्ची पहिचान हुई है। ऐसी दृष्टि होने से, ज्ञानकला जागृत होने से मैंने यह प्रमाणित कर लिया है कि जो मेरी चैतन्यज्योति है, निश्चय से मैं तो वही हूँ, मैं तो निज चैतन्यज्योतिस्वरूप ही हूँ।,. . .