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गाथा १४२
नयपक्षातीत माने विकल्पातीत। जबतक विकल्प चलेगा, तबतक आत्मा का अनुभव नहीं होगा। यह विकल्प चारित्र संबंधी कमजोरी का परिणाम है; क्योंकि आत्मानुभूतिरूप शुद्धोपयोगचारित्र निर्विकल्प दशा का ही नाम है । इस अपेक्षा से शुद्धोपयोगियों को ही विकल्पातीत, नयपक्षातीत कहा जाता है; सामान्य ज्ञानियों को भी अनुभूति के काल में ही विकल्पातीत, नयपक्षातीत कहा जाता है।
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दूसरे दोनों नयों के स्वरूप को भलीभाँति जाननेवाले, उनके प्रयोजन को पहिचाननेवाले, आत्मानुभवी ज्ञानी धर्मात्मा सदा ही नयपक्षातीत हैं; क्योंकि वे दोनों में से किसी भी नय के पक्ष में नहीं पड़ते। वे दोनों को सही रूप में जानते हैं और दोनों का यथायोग्य उपयोग करते हैं। अतः वे सदा ही नयपक्षातीत हैं। उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी के विचार भी द्रष्टव्य हैं, जो इसप्रकार हैं
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"देखो, 'मैं एक हूँ, अबद्ध हूँ' - इत्यादि प्रकार की जो वृत्ति उठती है, वह भी एक नयपक्ष का विकल्प है; इसका भी जो त्याग करता है, वही सदा स्वरूप में गुप्त होकर रह सकता है । देखो, बाह्य वस्तु का ग्रहण - त्याग तो स्वरूप में है ही नहीं । यहाँ तो एक समय की अवस्था में जो नयपक्ष का विकल्प उठता है, उसके भी त्याग की भावना की बात है । '
जबतक व्रत, तपादि शुभराग का पक्षपात रहता है, तबतक चित्त में क्षोभ रहता है। यह बात तो है ही; परन्तु 'मैं शुद्ध हूँ, अभेद एकरूप चिद्रूप हूँ' - ऐसा निजस्वरूप सम्बन्धी नयपक्ष का विकल्प भी जबतक उठता है, तबतक भी चित्त का क्षोभ नहीं मिटता । ये नयपक्ष के विकल्प भी क्षोभ हैं, आकुलता हैं। जब नय का सर्व पक्षपात मिट जाता है, तब वीतरागदशा होने पर स्वरूप की श्रद्धा निर्विकल्प होती है, स्वरूप में प्रवृत्ति होती है तथा अतीन्द्रिय आनन्द अनुभव में आता है।
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देखो, चौथे गुणस्थान में जो सम्यग्दर्शन होता है, वह श्रद्धा अपेक्षा निर्विकल्प अर्थात् रागरहित वीतरागी परिणाम ही है। ऐसा नहीं समझना कि जीव ११ वें - १२वें गुणस्थान में ही वीतरागदशा प्राप्त करता है। भाई ! सम्यग्दर्शन स्वयं वीतरागी दशा है।
१. प्रवचनरत्नाकर, भाग ४, पृष्ठ ३१२ २. वही, पृष्ठ ३१४