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गाथा १४२
पर्यायार्थिकनय कहो या व्यवहारनय कहो - इन दोनों का एक ही अर्थ है; क्योंकि इस नय के विषय में जितना भी व्यवहार होता है, वह उपचार मात्र है।"
जो व्यवहारनय और पर्यायार्थिकनय को पर्यायवाची ही मानता हो, उसे इस बात की गहराई में जाने की क्या आवश्यकता है कि वह 'एक नय' शब्द का अर्थ पर्यायार्थिकनय करे या व्यवहारनय। यही कारण है कि सहजभाव से जो भी शब्द ख्याल में आया, उसी का प्रयोग कर दिया गया।
प्रश्न - यदि यह बात है तो फिर नाटक समयसार में सर्वत्र ही कलश टीका का अनुसरण करने वाले बनारसीदासजी ने यहाँ भी उनका अनुसरण क्यों नहीं किया ?
बनारसीदासजी तो नाटक समयसार के अन्त में प्रशस्ति में स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं -
(चौपाई ) पांडे राजमल्ल जिनधर्मी, समैसार नाटक के मर्मी । जिन गिरंथ की टीका कीनी, बालबोध सुगम कर दीनी ॥इह विधि बोध-वचनिका फैली, समै पाय अध्यातम सैली । प्रगटी जगमांही जिनवाणी, घर-घर नाटक कथा बखानी ॥ नाटक समयसार हित जी का, सुगमरूप राजमली टीका । कवितबद्ध रचना जो होई, भाषा ग्रन्थ पढ़े सब कोई ॥ तब बनारसी मनमहिं आनी, कीजै तो प्रगटै जिनवानी । पंचपुरुष की आज्ञा लीनी कवितबद्ध की रचना कीनी ॥ उक्त छन्दों से स्पष्ट ही है कि बनारसीदासजी के नाटक समयसार का मुख्य आधार राजमलीय कलशटीका ही है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठना अत्यन्त स्वाभाविक है कि इस छन्द के अर्थ करने में बनारसीदासजी ने कलशटीकाकार का अनुसरण क्यों नहीं किया ?
उत्तर- अध्यात्मप्रेमी मुमुक्षु समाज इस बात से अपरिचित नहीं है कि आचार्य कुन्दकुन्द के प्रमुख ग्रन्थ समयसार और नियमसार में निश्चय-व्यवहारनय की मुख्यता से कथन है तथा प्रवचनसार और पंचास्तिकाय में द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनय की मुख्यता से कथन किया गया है। लगता है कि इस बात को