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समयसार अनुशीलन
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उक्त तीन बिन्दुओं में प्रथम बिन्दु के सन्दर्भ में बात यह है कि द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिक नय मूलतः आगम के नय हैं और निश्चय-व्यवहार अध्यात्म के। यद्यपि ये दोनों ही शैलियाँ एकदम अलग-अलग हैं; तथापि एक-दूसरे की विरोधी नहीं, अपितु पूरक हैं।
प्रस्तुत प्रकरण में दोनों ही शैलियाँ सहज ही घटित हो जाती हैं। आत्मा में कर्म बद्ध हैं' - यह कथन पर्यायदृष्टि से किया गया कथन होने से पर्यायार्थिक नय का कथन है तथा आत्मा और कर्मों के संयोग का कथन होने से दो द्रव्यों के बीच संयोग को बताने वाले असद्भूतव्यवहारनय का कथन भी है। इसीप्रकार 'आत्मा में कर्म अबद्ध हैं' - यह कथन द्रव्यदृष्टि से किया गया होने से द्रव्यार्थिकनय का कथन है और संयोग को अस्वीकार कर देनेवाला कथन होने से शुद्धस्वभाव के प्रतिपादक निश्चयनय का कथन है। - इसप्रकार हम देखते हैं कि यहाँ दोनों की शैलियाँ सहजभाव से घटित हो रही हैं। ... यह तो आप जानते ही हैं कि कलशटीकाकार पाण्डे राजमलजी संयोग का कथन करनेवाले असद्भूतव्यवहारनय को नय ही नहीं मानते हैं। जो इस बात से अपरिचित हों, उन्हें 'परमभावप्रकाशक नयचक्र' का 'पंचाध्यायी के अनुसार व्यवहारनय के भेद-प्रभेद' प्रकरण का अध्ययन करना चाहिए। __हाँ, तो संयोगी कथन करनेवाले असद्भूतव्यवहारनय को नयाभास माननेवाले पाण्डे राजमलजी यहाँ आत्मा में कर्म बद्ध हैं' - इस संयोगी कथन को व्यवहारनय का कथन कैसे कह सकते थे ? यही कारण है कि उन्होंने यहाँ 'एक नय' शब्द का अर्थ पर्यायार्थिकनय और 'दूसरे नय' शब्द का अर्थ द्रव्यार्थिकनय किया है।
दूसरे वे व्यवहारनय और पर्यायार्थिकनय को पर्यायवाची जैसा ही मानते हैं। जैसाकि उनके निम्नांकित कथन से स्पष्ट ही है -
"पर्यायार्थिक नय इति यदि वा व्यवहार एव नामेति।
एकार्थों यस्मादिह सर्वोऽप्युपचारमात्रः स्यात् ॥ १. पंचाध्यायी, प्रथम अध्याय, श्लोक ५२१