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समयसार अनुशीलन
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उत्तर - ज्ञानी उन रागादिभावों का स्वामी नहीं बनता, कर्त्ता नहीं बनता; उनका स्वामी और कर्त्ता स्वयं को नहीं मानता, उनका भी वह ज्ञाता ही रहता है और ज्ञातृत्व का भाव तो ज्ञानभाव ही है, अज्ञानभाव नहीं; इसकारण यह कहा जाता है कि ज्ञानी के अज्ञानभाव नहीं होते।
उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी के विचार भी द्रष्टव्य हैं -
"ज्ञानी ज्ञानस्वरूप से परिणमता है, ज्ञानी ज्ञान का उल्लंघन करके नहीं परिणमता। ज्ञानी का स्वामित्व निरन्तर ज्ञान में ही वर्तता है। ज्ञानी को रागादि में स्वामीपना नहीं है। अशुभराग भी कदाचित् ज्ञानी को होता है; परन्तु उसे उसका भी स्वामित्व नहीं है। __ ज्ञानी क्रोधादि विकारी भावों का भी ज्ञाता है,कर्ता नहीं है।शरीर, मन, वाणी आदि पर पदार्थ जैसे ज्ञेय हैं, जाननेलायक हैं; उसीप्रकार चारित्रमोहादिजनित अस्थिरतारूप कमजोरी से रागादि होने पर भी वे सब ज्ञानी के ज्ञेय हैं, वह उनका कर्ता नहीं होता; रागादिरूप परिणमन है, इस अपेक्षा से कर्ता कहा जाता है - यह बात जुदी है।"
इसप्रकार इन गाथाओं में भी उदाहरण के माध्यम से यही सिद्ध किया गया है कि ज्ञानी के सभी भाव ज्ञानमय होते हैं और अज्ञानी के सभी भाव अज्ञानमय होते हैं अथवा ज्ञानी अपने ज्ञानमयभावों का कर्ता-भोक्ता है और अज्ञानी अज्ञानमय भावों का कर्ता-भोक्ता है।
- अब आगामी गाथाओं की सूचना देनेवाला कलशरूपकाव्य कहते हैं, जो इसप्रकार है -
( अनुष्टप्) अज्ञानमयभावानामज्ञानी व्याप्य भूमिकाम् । द्रव्यकर्मनिमित्तानां भावानामेति हेतुताम् ॥६८॥
(दोहा) अज्ञानी अज्ञानमय भावभूमि में व्याप्त । इसकारण द्रवबंध के हेतुपने को प्राप्त ॥६८॥
१. प्रवचनरत्नाकर, भाग ४, पृष्ठ २७८