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समयसार अनुशीलन
'ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमते हैं और जीव के साथ बँधते हैं और उस समय जीव भी स्वयमेव अपने अज्ञानभाव से अतत्त्वश्रद्धानादि भावरूप परिणमता है और इसप्रकार अपने अज्ञानमय भावों का कारण स्वयं ही होता है।
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मिथ्यात्वादि का उदय होना, नवीन पुद्गलों का कर्मरूप परिणमना तथा बँधना और जीव का अपने अतत्त्वश्रद्धानादि भावरूप परिणमना - यह तीनों ही एक समय में ही होते हैं, सब स्वतन्त्रतया अपने आप ही परिणमते हैं, कोई किसी का परिणमन नहीं कराता ।"
गाथाओं में तो अज्ञान का उदय, मिथ्यात्व का उदय, असंयम का उदय, कषाय का उदय और योग का उदय - ये पाँच प्रकार के उदय बताये हैं; परन्तु आत्मख्याति टीका में अज्ञान के उदय को मुख्य रखकर शेष चार को अज्ञान के उदय के भेद के रूप में प्ररूपित किया है। इसकारण वे चारों ही एक प्रकार से अज्ञान के ही उदय हैं। इसप्रकार अज्ञान के उदय में पाँचों ही गर्भित हो गये हैं। यही कारण है कि इन पाँचों को एक अज्ञानभाव शब्द से भी अभिहित किया जाता है।
इन पाँचों की परिभाषाएँ टीका व भावार्थ में स्पष्ट हो ही चुकी हैं। भावार्थ में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि अज्ञानभाव के भेदरूप ये सभी उदय पुद्गल के परिणाम हैं और इनका स्वाद अतत्त्वश्रद्धानादिक के रूप से ज्ञान में आता है । मिथ्यात्वादि का उदय होना, नवीन पुद्गलों का कर्मरूप परिणमना और जीव का अतत्त्वश्रद्धानादिरूप परिणमना - यद्यपि ये तीनों एक ही समय में होते हैं, सब स्वतंत्ररूप से अपने आप ही परिणमते हैं, कोई किसी का परिणमन नहीं कराता; तथापि इनमें निमित्तनैमित्तिकभाव अवश्य है।
यहाँ एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह उपस्थित होता है कि यहाँ मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग - सभी को अज्ञानभाव बताया जा रहा है और यह भी कहा गया है कि अज्ञानी के सभी भाव अज्ञानमय होते हैं और ज्ञानी के सभी भाव ज्ञानमय होते हैं। ऐसी स्थिति में सम्यग्दृष्टि ज्ञानी के अविरति, प्रमाद, कषाय और योग नहीं होना चाहिए; पर सम्यग्दृष्टि ज्ञानियों