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समयसार गाथा १४२ १४१वीं गाथा में आत्मा के सन्दर्भ में व्यवहारनय और निश्चयनय के पक्ष को प्रस्तुत किया गया है। उसी के सन्दर्भ में आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा की उत्थानिका आत्मख्याति में ततः किम् - इससे क्या?' मात्र इतनी ही देते हैं। तात्पर्य यह है कि कोई नय कुछ भी क्यों न कहे, मुझे उससे क्या प्रयोजन है ? क्योंकि मैं तो नयपक्ष से पार हूँ, नयविकल्पों से विकल्पातीत हूँ और आत्मानुभूति भी नयपक्षातीत अवस्था का नाम है। अतः मुझे इन नय विकल्पों से क्या प्रयोजन है ? इस आशय का प्रतिपादन करने वाली आगामी गाथा इसप्रकार है -
कम्मं बद्धमबद्धं जीवे एवं तु जाण णयपक्खं । पक्खादिक्कंतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो ॥ १४२॥
अबद्ध है या बद्ध है जिय ये सभी नयपक्ष हैं। नयपक्ष से अतिक्रान्त जो वह ही समय का सार है ॥१४२॥
जीव में कर्म बद्ध या अबद्ध हैं - इसप्रकार तो नय पक्ष जानो; किन्तु जो पक्षातिक्रान्त कहलाता है, समयसार तो वह है, शुद्धात्मा तो वह है।
उक्त भाव को पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा ने भावार्थ में इसप्रकार व्यक्त किया है -
"जीव कर्म से बंधा हुआ है' तथा 'नहीं बंधा हुआ है' - यह दोनों नयपक्ष हैं। उनमें से किसी ने बन्धपक्ष ग्रहण किया, उसने विकल्प ही ग्रहण किया; किसी ने अबन्ध पक्ष लिया, तो उसने भी विकल्प ही ग्रहण किया और किसी ने दोनों पक्ष लिये तो उसने भी पक्षरूप विकल्प का ही ग्रहण किया। परन्तु ऐसे विकल्पों को छोड़कर जो कोई भी पक्ष को ग्रहणानहीं करता, वही शुद्ध पदार्थ का स्वरूप जानकर उसरूप समयसार को, शुद्धात्मा को प्राप्त करता है। नयपक्ष को ग्रहण करना राग है, इसलिये समस्त नयपक्ष को छोड़ने से वीतराग समयसार
हुआ जाता है।"