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गाथा १४२
है कि आत्मा बद्ध भी है और अबद्ध भी है, वह भी विकल्प का अतिक्रमण नहीं करता। इसप्रकार इसमें नय और प्रमाण - दोनों के पक्ष का निषेध किया गया है। कहा गया है कि वस्तु नयातीत ही नहीं, प्रमाणातीत भी है; नयपक्ष के विकल्प से भी पार है और प्रमाण के विकल्प से भी पार है, सबप्रकार के विकल्पों से पार है। ___ यहाँ एक बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि गाथा और टीका में तो इसप्रकार की भाषा का प्रयोग है कि 'जीव में कर्म बद्ध है या अबद्ध' परन्तु जयचन्दजी के भावार्थ में ऐसा लिखा है कि जीव कर्मों से बंधा है या नहीं बंधा है। वर्तमान में समयसार पर प्रवचन करनेवाले सभी प्रवक्ता भी पण्डित जयचन्द के अनुकरण पर 'जीव कर्मों से बंधा है या नहीं बंधा है' भाषा का ही प्रयोग करते हैं । यद्यपि दोनों के भाव में कोई अन्तर नहीं है; तथापि गाथा और टीका की भाषा ही अधिक उपयुक्त लगती है; क्योंकि उसमें भगवान आत्मा की प्रधानता भासित होती है।
गाथा में प्रतिपादित सम्पूर्ण विषय-वस्तु का प्रतिपादन करते हुए स्वामीजी ने जो प्रकाश डाला है, उसमें कुछ ध्यान देने योग्य तथ्य इसप्रकार है - __ "इसका अर्थ यह है कि दृष्टि अन्तर में झुकते ही जब सभी विकल्प छूट जाते हैं, तब शुद्ध आत्मा का साक्षात् अनुभव हो जाता है। ये विकल्प हैं, मैं इनको छोड़ता हूँ'- ऐसा विकल्प भी नहीं रहता, मात्र अन्तर्दृष्टिपूर्वक अनुभव ही रह जाता है। ___यहाँ समस्त नयपक्ष को छोड़ने की बात चल रही है। पीछे ११वीं गाथा में जो यह कहा है कि भूतार्थ के आश्रय से जीव सम्यग्दृष्टि होता है, वहाँ नयपक्ष के विकल्प की बात नहीं है। वहाँ तो भूतार्थ अर्थात् शाश्वत रहनेवाले शुद्धचैतन्यस्वभावमय भगवान आत्मा को ही शुद्धनव कहा है और उसके आश्रय से जो स्वानुभव प्रगट होता है, उसे सम्यग्दर्शन कहा है।
१. प्रवचनरत्नाकर, भाग ४, पृष्ठ ३०५-३०६