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गाथा १४२
एक नय का पक्ष है कि जीव वेद्य है और दूसरे नय का पक्ष है कि जीव वेद्य नहीं है। इसप्रकार चित्स्वरूप जीव के सम्बन्ध में दो नयों के दो पक्षपात हैं; किन्तु तत्त्ववेदी पक्षपात से रहित है। उसके लिए तो चित्स्वरूप जीव चित्स्वरूप ही है।
एक नय का पक्ष है कि जीव भात है और दूसरे नय का पक्ष है कि जीव भात नहीं है। इसप्रकार चित्स्वरूप जीव के संबंध में दो नयों के दो पक्षपात हैं; किन्तु तत्त्ववेदी पक्षपात से रहित है। उसके लिए तो चित्स्वरूप जीव चित्स्वरूप ही है। ___ उक्त बीस छन्दों में यह कहा गया है कि आत्मा बद्ध है, अबद्ध है; मूढ़ है, अमूढ़ है; रागी है, अरागी है; द्वेषी है, अद्वेषी है; कर्ता है, अकर्ता है; भोक्ता है, अभोक्ता है; जीव है, अजीव है; सूक्ष्म है, स्थूल है; कारण है, अकारण है; कार्य है, अकार्य है; भाव है, अभाव है; एक है, अनेक है; सान्त है, अनन्त है; नित्य है, अनित्य है; वाच्य है, अवाच्य है; नाना है, अनाना है; चेत्य है, अचेत्य है; दृश्य है, अदृश्य है; वेद्य है, अवेद्य है और भात है, अभात है - ये सब नयों के कथन हैं। यद्यपि ये समझने के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं, तथापि विकल्पात्मक होने से नयपक्ष ही है।
जो आत्मार्थी उक्त कथनों के माध्यम से यथायोग्य विवक्षापूर्वक वस्तुस्वरूप का निर्णय करके, तत्त्व का निर्णय करके, इन नयकथनों का भी पक्षपात छोड़कर, नयों का पक्षपात छोड़कर, नय कथनों के विकल्पों को तोड़कर,चित्स्वरूप निज आत्मा का अनुभव करता है; वह ही आत्मा को प्राप्त करता है, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र को प्राप्त करता है; अतीन्द्रिय आनन्द को प्राप्त करता है; परमसुखी होता है; मुक्ति को प्राप्त करता है। __ यद्यपि आत्मा में अनेक साधारण धर्म हैं, सामान्य धर्म हैं; तथापि चित्स्वभाव आत्मा का असाधारण धर्म है, विशेष धर्म है, प्रगट अनुभवगोचर धर्म है। इसकारण उसे मुख्य करके यहाँ जीव को बार-बार चित्स्वरूप ही कहा गया है।
उक्त बीस छन्दों में प्रत्येक के अन्तिम तीन पद तो समान ही हैं, मात्र पहले पद में परिवर्तन है। ७०वें पद में अर्थात् प्रथम पद में समागत बद्ध-अबद्ध पदों