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समयसार अनुशीलन
228 नय संबंधी जो भी कथन है, चिन्तन है; वह सब विकल्पात्मक है और समयसारस्वरूप भगवान आत्मा निर्विकल्प है, विकल्पातीत है, यही कारण है कि वह नयपक्षातीत है; तात्पर्य यह है कि जब आत्मा का अनुभव होता है, तब नय संबंधी विकल्प नहीं होता। - इसप्रकार दृष्टि का विषयभूत भगवान आत्मा भी नयपक्षातीत है और उसकी अनुभूति भी नयपक्षातीत है। नय के कथनों से तो मात्र उसके स्वरूप का प्रतिपादन होता है। जब आत्मा का स्वरूप हमारे विकल्पात्मक ज्ञान में स्पष्ट हो गया तो अब प्रतिपादन का भी क्या प्रयोजन रह जाता है? अतः अब इन नयविकल्पों से बस होओ - इसी में सार है।
उक्त गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - __ "जीव में कर्म बद्ध है अथवा जीव में कर्म अबद्ध है - इसप्रकार के दोनों विकल्प नयपक्ष ही हैं। जो व्यक्ति इन दोनों नयपक्षों का उल्लंघन कर देता है, अतिक्रम कर देता है, दोनों को छोड़ देता है; वह समस्त विकल्पों का अतिक्रम करके स्वयं निर्विकल्प होकर, एक विज्ञानघन स्वभावरूप होकर साक्षात् समयसार होता है।
जो व्यक्ति 'जीव में कर्म बद्ध है' - ऐसा विकल्प करता है, वह 'जीव में कर्म अबद्ध है' - ऐसे एक पक्ष का अतिक्रम करता हुआ भी विकल्प का अतिक्रम नहीं करता और जो व्यक्ति जीव में कर्म अबद्ध है' - ऐसा विकल्प करता है, वह भी 'जीव में कर्म बद्ध है' - ऐसे एक पक्ष का अतिक्रम करता हुआ भी विकल्प का अतिक्रम नहीं करता। तथा जो व्यक्ति यह विकल्प करता है कि 'जीव में कर्म बद्ध भी है और अबद्ध भी है' - वह दोनों पक्षों का अतिक्रम न करता हुआ विकल्प का अतिक्रम नहीं करता।
इसलिए जो व्यक्ति समस्त नयपक्षों का अतिक्रम करता है, वही समस्त विकल्पों का अतिक्रम करता है और जो समस्त विकल्पों का अतिक्रम करता है, वही समयसार को प्राप्त करता है, उसका साक्षात् अनुभव करता है।"
गाथा में तो मात्र दो नयपक्षों की ही चर्चा आई है; किन्तु टीका में तीसरे प्रमाणपक्ष को भी रखा गया है, जिसमें कहा गया है कि जो ऐसा विकल्प करता