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समयसार अनुशीलन
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, उक्त कथन से यह स्पष्ट है कि अब आगामी गाथाओं में नवतत्त्वों में छुपी हुई, पर नवतत्त्वों से भिन्न आत्मज्योति का स्वरूप स्पष्ट करेंगे, उसके अनुभव की प्रक्रिया पर प्रकाश डालेंगे।
पदार्थों की चर्चा में जीवाजीवादि पदार्थों को मुख्यता न देकर तथा पुण्यपापादि पदार्थों की बात कहकर आगामी अधिकार का संकेत भी दे दिया है। आगामी चार गाथाओं में कर्ताकर्माधिकार समाप्त हो जावेगा और उसके बाद पुण्यपापाधिकार आवेगा। इस बात का संकेत उक्त कथन में है। - अभी तक आचार्यदेव विभिन्न नयों से वस्तु को समझाते आये हैं, अब आगामी गाथाओं में वे हमें नयपक्षातीत वस्तु की ओर ले जाना चाहते हैं; यही कारण है कि उक्त गाथा के माध्यम से एक बार संक्षेप में व्यवहार और निश्चयनय की विषयवस्तु को स्पष्ट किया गया है।
वस्तु तो पर से निरपेक्ष ही है। उसे अपने गुण-धर्मों को धारण करने में किसी पर की अपेक्षा रंचमात्र भी नहीं है। उसमें नित्यता-अनित्यता, एकता-अनेकता, आदि सब धर्म एक साथ विद्यमान रहते हैं। द्रव्यदृष्टि से वस्तु जिस समय नित्य है, पर्यायदृष्टि से उसी समय अनित्य भी है, वाणी से जब नित्यता का कथन किया जाएगा। तब अनित्यता का कथन सम्भव नहीं है। अतः जब हम वस्तु की नित्यता का प्रतिपादन करेंगे। तब श्रोता यह समझ सकता है कि वस्तु नित्य ही है, अनित्य नहीं। अतः हम किसी अपेक्षा नित्य भी है.' - ऐसा कहते हैं। ऐसा कहने से उसके ज्ञान में यह बात सहज आ जावेगी कि किसी अपेक्षा अनित्य भी है, भले ही वाणी के असामर्थ्य के कारण वह बात कही नहीं जा रही है। अत: वाणी में स्यात् पद का प्रयोग आवश्यक है, स्यात्-पद अविवक्षित धर्मों को गौण करता है, पर अभाव नहीं। उसके प्रयोग बिना अभाव का भ्रम उत्पन्न हो सकता है।
__- अनेकान्त और स्याद्वाद, पृष्ठ ७
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