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समयसार अनुशीलन
पाये जाते हैं; क्योंकि नयचक्रकार स्वयं लिखते हैं कि हमने यह ग्रन्थ समयसारादि ग्रन्थों का आधार लेकर ही बनाया है; तथापि शुद्धात्मा तक ले जाने के लिए नयाधिराज परमशुद्धनिश्चयनय को ही निश्चयनय बताकर शेष को व्यवहार कहने की पद्धति भी अध्यात्म में पाई जाती है। इस बात का प्रबल प्रमाण है आचार्य जयसेन का उक्त कथन ।
यहाँ एक और बात भी ध्यान देने योग्य है, वह यहे कि विभिन्न प्रकाशनों में उक्त चार गाथाओं के क्रम में अन्तर देखने में आया है। यहाँ हमने जो क्रम दिया है, वह आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति में तो है ही; साथ ही आत्मख्याति की जो भाषा टीका जयचंदजी छाबड़ा ने लिखी है, उसमें भी वही क्रम है तथा सहजानन्दवर्णी की सप्तशांगी टीका में भी वही क्रम है; किन्तु सोनगढ़ व जयपुर से प्रकाशित समयसार में ऊपर की दो गाथाएँ बाद में हैं और नीचे की दो गाथायें पहले। गाथाओं के अर्थ पर ध्यान देने पर भी परिवर्तन का कोई कारण नजर नहीं आता है; क्योंकि उनके आगे-पीछे रखने से भाव में कोई अन्तर नहीं पड़ता है।
आत्मख्याति और तात्पर्यवृत्ति में एकरूपता रहे - इस भावना से हमने छाबड़ाजी के क्रम को ही रखना उचित समझा है।
किसी भी काम में सफलता प्राप्त करने के लिए शान्ति और प्रेम का रास्ता यद्यपि लम्बा रास्ता है, इसमें प्रतिद्वन्द्वी को नहीं, उसके हृदय को जीतना पड़ता है, जीत कर उसे समाप्त नहीं किया जाता, अपितु अपना बनाया जाता है; तथापि टिकाऊ और वास्तविक सफलता प्राप्त करने का एकमात्र रास्ता यही है । इसमें असीम धैर्य की आवश्यकता होती है । साधारण व्यक्ति में तो इतना धैर्य होता ही नहीं कि वह इतनी प्रतीक्षा कर सके - यही कारण है कि साधारण व्यक्तियों द्वारा महान कार्य सम्पन्न नहीं हो पाते। - सत्य की खोज, पृष्ठ २४७
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