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गाथा १३७-१४०
मिलाने से जैसा लाल रंग होता देखा जाता है, वैसा फिटकरी और हल्दी के मिलाने से नहीं। अतः हमने भी यहाँ सुधा का अर्थ चूना ही किया है।
आचार्य जयसेन भी तात्पर्यवृत्ति में हल्दी और चूना के उदाहरण के माध्यम से ही बात को स्पष्ट करते हैं। हाँ, एक बात तात्पर्यवृत्ति में विशेष जानने योग्य है, जो इसप्रकार है
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"यह जीव अनुपचरित - असद्भूतव्यवहारनय से द्रव्यकर्मों का कर्त्ता है। और अशुद्धनिश्चयनय से रागादि भावकर्मों का कर्त्ता है। यद्यपि जीव को द्रव्यकर्मों का कर्त्ता कहने वाले अनुपचरित - असद्भूतव्यवहारनय की अपेक्षा से यह अशुद्धनिश्चयनय नाम पाता है; तथापि शुद्धात्मद्रव्य को विषय बनानेवाले शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा वह वस्तुतः व्यवहार ही है - यह भावार्थ है । "
उक्त कथन में दो बातें ध्यान देने योग्य हैं। पहली बात तो यह कि यहाँ जीव को अनुपचरित - असद्भूत व्यवहारनय से द्रव्यकर्मों का कर्त्ता कहा गया है; क्योंकि जीव का शरीर से संश्लिष्ट संबंध होने से जीव का शरीर के साथ एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्व बतानेवाले नय को अनुपचरित - असद्भूतव्यवहारनय कहते हैं और द्रव्यकर्म कार्माणशरीररूप ही है; अतः उनका कर्त्ता जीव को बताना अनुपचरित - असद्भूतव्यवहारनय का ही कार्य है।
दूसरे यहाँ शुद्धनिश्चयनय से अशुद्धनिश्चयनय को व्यवहार बताया गया है। यह तो आप जानते ही हैं कि पंचाध्यायी आदि ग्रन्थों में परमशुद्धनिश्चयनय को नयाधिराज कहा गया है और उसकी अपेक्षा शेष सभी नयों को एक अपेक्षा से व्यवहार की कोटि में डाला गया है।
'शुद्धात्मद्रव्य को विषय बनानेवाले शुद्धनिश्चयनय को ऐसा कहकर आचार्य जयसेन यहाँ शुद्धनिश्चय शब्द का प्रयोग परमशुद्धनिश्चयनय के अर्थ में ही कर रहे हैं; क्योंकि दृष्टि का विषयभूत शुद्धात्मद्रव्य परमशुद्धनिश्चयनय का ही विषय है।
यद्यपि नयचक्रादि ग्रंथों में चार प्रकार के व्यवहारनय और चार प्रकार के निश्चयनय बताये गये हैं और समयसारादि ग्रन्थों में प्रयोग भी तदनुसार ही