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समयसार अनुशीलन
में होता है, उसका उपादान पुद्गल है और राग-द्वेष के परिणाम आत्मा में होते हैं, उनका उपादान आत्मा है।
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'पुराने कर्म के उदय में राग-द्वेष परिणाम और उन राग-द्वेष परिणामों से नये कर्मों का बंध' यदि इसमें राग-द्वेष परिणामों को गौण कर दें तो नये कर्मों के बंधन का कारण पुराने कर्मों के उदय को कहा जा सकता है। इसप्रकार पौद्गलिक कर्मों के बंधन के कारण पौद्गलिक कर्म ही ठहरते हैं।
इसीप्रकार जब कर्मों का उदय होता है, तब आत्मा स्वयमेव ही रागद्वेषादिभावों रूप परिणमित होता है; परन्तु कर्मों के उदय और राग-द्वेषरूप परिणाम- इन दोनों में एकत्व के अध्यास के कारण, एकत्व की भ्रान्ति के कारण अज्ञानी आत्मा तत्त्व के अश्रद्धानादि रूप अपने अज्ञानमय परिणामों का हेतु बनता है, कर्त्ता बनता है।
अपने अज्ञानमय परिणामों का कर्त्ता अज्ञानी ही बनता है, ज्ञानी नहीं; क्योंकि उसमें उनके एकत्व का अध्यास नहीं है ।
इस प्रकरण का भाव स्पष्ट करते हुए स्वामीजी कहते हैं "यहाँ पर यह सिद्ध करना है कि पुराने कर्म का उदय नवीन कर्म के बंध का कारण होता है। मिथ्यात्व, अविरति आदि जो पूर्वबद्ध कर्म हैं, उनका उदय
नवीन बंध का कारण है; परन्तु जो जीव स्वयं मिथ्यात्व, अविरति आदि
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अज्ञानभावरूप से परिणमित होते हैं, उनको ही पूर्वकर्म का उदय निमित्त कहा जाता है। भाई ! बात थोड़ी सूक्ष्म है, वीतराग सर्वज्ञ का मार्ग अलौकिक है। लोगों को यह सुनने को नहीं मिला; इसकारण कठिन लगता है; परन्तु सुनतेसुनते सब सुलभ हो जाता है । '
१. प्रवचनरत्नाकर, भाग ४, पृष्ठ २८५
2. पुराने कर्म का जो उदय आया, वह नवीन कर्मबन्धन में हेतु है; क्योंकि अज्ञानी जीव जब त्रिकाली शुद्ध चैतन्य के साथ क्षणिक राग के भाव को एक मानकर परिणमता है; तब उसे पुराने द्रव्यकर्म का उदय निमित्त होता है और