________________
215
गाथा १३२-१३६
प्रमाद में मुख्य भाग पाँच इन्द्रियों के विषय सेवन रूप अविरति और चार कषायों का ही है; अतः कषाय और अविरति में प्रमाद को गर्भित कर लेने में कुछ भी अनुचित नहीं है तथा विशेष ध्यान आकर्षित करने के लिए पृथक् उल्लेख कर देने में भी कोई दोष नहीं है।
अब रही बात समयसार की इन गाथाओं में प्रथम स्थान पर उल्लिखित अज्ञान की बात, सो वह तो मिथ्यात्वादि चार कारणों के समुदायरूप ही है। इस बात का उल्लेख इन गाथाओं की आत्मख्याति टीका में है ही, जो इसप्रकार है -
" अतत्त्व की उपलब्धिरूप से अर्थात् तत्त्व के अज्ञान रूप से ज्ञान में स्वादरूप होता हुआ अज्ञान का उदय है ।
नवीन कर्मों के हेतुरूप यह अज्ञानमयभाव मिथ्यात्व असंयम, कषाय और योग के उदय के रूप में चार प्रकार के हैं।
,
तत्त्व के अश्रद्धानरूप से ज्ञान में स्वादरूप होता हुआ मिथ्यात्व का उदय है, अविरमणरूप से ज्ञान में स्वादरूप होता हुआ असंयम का उदय है, कलुष उपयोगरूप से ज्ञान में स्वादरूप होता हुआ कषाय का उदय है, शुभाशुभ प्रवृत्ति या निवृत्ति के व्यापार रूप से ज्ञान में स्वादरूप होता हुआ योग का उदय है।
इन पौद्गलिक मिथ्यात्वादि के उदय के हेतुभूत होने पर जो पुद्गलद्रव्य ज्ञानावरणादि भाव से आठ प्रकार स्वयमेव परिणमता है, वह कार्माणवर्गणागत पुद्गलद्रव्य जब जीव में निबद्ध होता है, तब स्वयमेव अज्ञान से स्वपर के एकत्व के अध्यास के कारण तत्त्व - अश्रद्धान आदि अपने अज्ञानमय परिणामभावों का हेतु होता है। "
गाथा और टीका के इसी भाव को भावार्थ में पंडित जयचन्दजी छाबड़ा इसप्रकार व्यक्त करते हैं
1
.44
'अज्ञानभाव के भेदरूप मिध्यात्व, अविरति, कषाय और योग के उदय पुद्गल के परिणाम हैं और उनका स्वाद अतत्त्व श्रद्धानादिरूप से ज्ञान में आता है । वे उदय निमित्तभूत होने पर कार्मणवर्गणारूप नवीन पुद्गल स्वयमेव