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"अज्ञानी के शुभाशुभभावों में आत्मबुद्धि होने से उसके समस्त भाव अज्ञानमय ही हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि (ज्ञानी) के यद्यपि चारित्रमोह के उदय होने पर क्रोधादिक भाव प्रवर्तते हैं; तथापि उसके उन भावों में आत्मबुद्धि नहीं है, वह उन्हें पर के निमित्त से उत्पन्न उपाधि मानता है। उसके क्रोधादिक कर्म उदय में आकर खिर जाते हैं। वह भविष्य का ऐसा बन्ध नहीं करता कि जिससे संसार परिभ्रमण बढ़े; क्योंकि (ज्ञानी) स्वयं उद्यमी होकर क्रोधादिभावरूप परिणमता नहीं है । यद्यपि उदय की बलबत्ता से परिणमता है; तथापि ज्ञातृत्व का उल्लंघन करके परिणमता नहीं है, ज्ञानी का स्वामित्व निरन्तर ज्ञान में ही वर्तता है; इसलिए वह क्रोधादिक भावों का अन्य ज्ञेयों की भाँति ज्ञाता ही है, कर्त्ता नहीं | इसप्रकार ज्ञानी के समस्त भाव ज्ञानमय ही हैं। "
प्रश्न – 'उदय की बलवत्ता से परिणमता है।' - इसका क्या आशय है ? क्या कर्म उसे जबरदस्ती रागादिरूप परिणमाता है ?
उत्तर
इस प्रश्न का उत्तर जयपुर से प्रकाशित समयसार की टिप्पणी में इसप्रकार दिया गया है
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गाथा १३०-१३१
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"सम्यग्दृष्टि की रुचि सर्वदा शुद्धात्मद्रव्य के प्रति ही होती है, उसको कभी रागद्वेषादि भावों की रुचि नहीं होती। उसको जो रागद्वेषादि भाव होते हैं; वे भाव यद्यपि उसकी स्वयं की निर्बलता से ही एवं उसके स्वयं के अपराध से ही होते हैं, फिर भी वे रुचिपूर्वक नहीं होते; इसकारण उन भावों को 'कर्म की बलबत्ता से होनेवाले भाव' कहने में आता है। इससे ऐसा नहीं समझना कि 'जड़ द्रव्यकर्म आत्मा के ऊपर लेशमात्र भी जोर कर सकता है; परन्तु ऐसा समझना कि विकारी भावों के होने पर भी सम्यग्दृष्टि महात्मा की शुद्धात्मद्रव्यरुचि में किंचित् भी कमी नहीं है, मात्र चारित्रादि सम्बन्धी निर्बलता है ऐसा आशय बतलाने के लिए ऐसा कहा है। जहाँ-जहाँ कर्म की बलवत्ता, कर्म की जबरदस्ती, कर्म का जोर इत्यादि कथन होवे; वहाँ-वहाँ ऐसा आशय समझना।"
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प्रश्न- जब ज्ञानी के भी रागादि होते हैं और रागादिभाव तो अज्ञानभाव ही हैं, फिर ज्ञानी के अज्ञानमयभाव नहीं होते यह क्यों कहा जाता है ?