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गाथा १३०-१३१
___अज्ञानी अपने अज्ञानमयभावों की भूमिका में व्याप्त होकर अपने अज्ञानमय भावों के कारण द्रव्यकर्म के बंधन के हेतुत्व को प्राप्त होता है,द्रव्यकर्म के बंधन का निमित्त बनता है। तात्पर्य यह है कि अज्ञानी के अज्ञानमयभाव ही कर्मबंधन के निमित्तकारणरूप हेतु हैं।
विगत गाथाओं में यह कहते आये हैं कि ज्ञानी के सभी भाव ज्ञानमय होते हैं और अज्ञानी के सभी भाव अज्ञानमय होते हैं; ज्ञानी ज्ञानमयभावों का कर्ता है और अज्ञानी अज्ञानमयभावों का कर्ता है तथा यह भी कहा गया है कि अज्ञानी को कर्मबंध होता है और ज्ञानी को कर्मबंध नहीं होता है। इसकारण यहाँ यह स्पष्ट कर रहे हैं कि अज्ञानी का अज्ञानमयभावभूमि में व्याप्त होना ही उसके कर्मबंध का कारण है।
इस कलश के भाव को कलशटीकाकार ने सोदाहरण समझाया है, जिसका सार इसप्रकार है -
"जिसप्रकार कलश रूप में तो मिट्टी परिणमती है, कुम्हार का परिणाम उसका बाह्य निमित्त कारण है; परन्तु व्याप्य-व्यापकरूप नहीं है; उसीप्रकार ज्ञानावरणादि कर्मपिण्डरूप तो पुद्गल स्वयं परिणमता है, पुद्गलद्रव्य ही उसमें व्याप्य-व्यापकरूप है; तथापि जीव का अशुद्धचेतनारूप मोह, राग, द्वेषादि परिणाम बाह्य निमित्तकारण है, परन्तु व्याप्य-व्यापकरूप नहीं है।
कोई जानेगा कि जीवद्रव्य तो शुद्ध, उपचारमात्र कर्मबन्ध का कारण होता है तो ऐसा नहीं है। क्योंकि वह स्वयं मोह-राग-द्वेष अशुद्धचेतनापरिणामरूप परिणमता है; इसलिए वह कर्म का कारण है।
द्रव्यकर्म अनेकप्रकार का है, उसका उदय भी अनेकप्रकार का है। एक कर्म ऐसा है कि जिसके उदय में शरीर होता है, एक ऐसा है कि जिसके उदय में मन, वचन, काय होता है, एक कर्म ऐसा होता है कि जिसके उदय में सुखदुःख होता है। ऐसे अनेकप्रकार के कर्म के उदय होने पर मिथ्यादृष्टि जीव कर्म के उदय को आपरूप अनुभवता है, इससे राग-द्वेष-मोह परिणाम होते हैं, उनके द्वारा नूतन कर्मबंध होता है। इसकारण मिथ्यादृष्टि जीव अशुद्धचेतनपरिणाम का कर्ता है; क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीव के शुद्धस्वरूप का अनुभव नहीं है, इसलिए कर्म के उदय के कार्य को आपरूप अनुभवता है।