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समयसार गाथा १३० से १३१
जो बात विगत गाथाओं तथा कलशों में कही गई है, अब आगामी गाथाओं में उसी बात को दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं -
कणयमया भावादो जायंते कुण्डलादओ भावा । अयमयया भावादो जह जायंते दु कडयादी ॥ १३० ॥ अण्णाणमया भावा अणाणिणो बहुविहा वि जायंते । णाणिस्स दु णाणमया सव्वे भावा तहा होंति ॥ १३१ ॥
स्वर्णनिर्मित कुण्डलादि स्वर्णमय ही हों सदा । लोहनिर्मित कटक आदि लोहमय ही हों सदा ॥ १३० ॥ इस ही तरह अज्ञानियों के भाव हों अज्ञानमय ।
इस ही तरह सब भाव हों सद्ज्ञानियों के ज्ञानमय ॥ १३१ ॥ जिसप्रकार स्वर्णमयभाव में से स्वर्णमय कुण्डल आदि बनते हैं और लोहमय भाव में से लोहमय कड़ा आदि बनते हैं; उसीप्रकार अज्ञानियों के अनेकप्रकार के अज्ञानमय भाव होते हैं और ज्ञानियों के सभी ज्ञानमय भाव होते हैं।
आत्मख्याति में आचार्य अमृतचन्द्र उक्त गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
" जिसप्रकार पुद्गल के स्वयं परिणामस्वभावी होने पर भी ' कारण के अनुसार ही कार्य होते हैं'- इस नियम के अनुसार स्वर्णपदार्थ से स्वर्णमय ही कुण्डलादि बनते हैं, लौहमय कड़ा आदि नहीं बनते; क्योंकि स्वर्ण स्वर्णजाति का उल्लंघन नहीं करता। तथा लोह पदार्थ से लोहमय कड़ा आदि बनते हैं, स्वर्णमय कुण्डलादि नहीं; क्योंकि लोह लोहजाति का उल्लंघन नहीं करता ।
इसीप्रकार जीव के स्वयं परिणामस्वभावी होने पर भी ' कारण के अनुसार ही कार्य होते हैं इस नियम के अनुसार अज्ञानी के अनेकप्रकार के
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