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समयसार अनुशीलन
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भाव अज्ञानमय हैं। इसप्रकार ज्ञानी और अज्ञानी के परिणमन में जमीनआसमान का अन्तर है।"
इसप्रकार विगत कलश में जो प्रश्न उठाया गया था; उसका उत्तर इस कलश में दे दिया गया। विगत कलश में कहा था कि ज्ञानवंत के भोग निर्जरा हेतु हैं और अज्ञानी को वही भोग बंध करते हैं। इसका क्या कारण है ? इस कलश में उक्त प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि अज्ञानी का उन भोगों में एकत्व, ममत्व और कर्तृत्व है; इसकारण अज्ञानी को बंध होता है और ज्ञानी का उनमें एकत्व, ममत्व और कर्तृत्व नहीं है; इसकारण ज्ञानी को उनसे बंध नहीं होता। ' इस सबका कुल मिलाकर तात्पर्य यह हुआ कि बंध का मूल कारण शुभाशुभ क्रिया नहीं; अपितु अज्ञानभाव है, मिथ्यात्वभाव है। अतः हमें इस अज्ञानभाव, मिथ्यात्वभाव से बचने का प्रयास करना चाहिए; किन्तु परपदार्थों में मुग्ध इस जगत का ध्यान इस ओर है ही नहीं। वह तो थोड़ी-बहुत शुभक्रिया
और शुभभाव करके ही सन्तुष्ट है, उसी में धर्म मान रहा है। ... जबतक वह अपने इस अज्ञानभाव को नहीं छोड़ेगा; मिथ्यात्वभाव को नहीं छोड़ेगा; तबतक बंध का निरोध नहीं होगा, संवर नहीं होगा, निर्जरा नहीं होगी और इनके नहीं होने से उसे मोक्ष भी नहीं होगा।
१. प्रवचनरत्नाकर, भाग ४, पृष्ठ २६६-२६७
- धर्म के नाम पर न तो मैं समाज को विघटित होते देख सकता हूँ
और न मुझसे धर्म की कीमत पर संगठन ही होगा। मैं धर्म को कायम रखकर समाज को संगठित करूँगा और समाज को संगठित रखकर धर्म को उसके सामने प्रस्तुत करूँगा - यह मेरा संकल्प है।
- सत्य की खोज, पृष्ठ २४३
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