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गाथा १२८-१२९
स्थान भी एक आत्मा ही है। यद्यपि ज्ञानी और अज्ञानी दोनों ही दोनों प्रकार के कर्मों को करते हुए एक-से ही दिखाई देते हैं, तथापि दोनों के परिणामों में अन्तर होने से फल में अन्तर पड़ जाता है। ज्ञानी जीव पुण्य-पाप भावों को करते तो हैं, पर उनमें उनका उदासीन भाव रहता है। वे उनमें ममत्व धारण नहीं करते, इसकारण उनके वे कार्य बंध के कारण न बनकर निर्जरा के कारण बन जाते हैं; किन्तु अज्ञानी मगन होकर वही कार्य करते हैं, अंध होकर उनमें ममत्व करते हैं; इसकारण बंध को प्राप्त होते हैं।
इसप्रकार इन गाथाओं में और कलश में यह स्पष्ट किया गया है कि ज्ञानी के मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी संबंधी रागादिभाव तो हैं ही नहीं; किन्तु अप्रत्याख्यानावरणादि संबंधी जो भी रागादिभाव विद्यमान हैं, यद्यपि ज्ञानी उन रूप परिणमित होता है, तथापि उनका स्वामित्व उसके नहीं होता, उसका कर्तृत्व भी नहीं होता, इसकारण उसे तत्संबंधी बंध भी नहीं होता।
उक्त संदर्भ में स्वामीजी के विचार भी द्रष्टव्य हैं -
"अज्ञानी को शुभाशुभभावों में एकत्वबुद्धि है, इसकारण उसके व्रत-तपादि के भाव भी अज्ञानमय ही हैं, जबकि ज्ञानी को राग से भिन्न निर्मलानंदस्वरूप अपने चैतन्यमय भगवान आत्मा का भान हो गया है। अतः उसे जो रागादिभाव होते हैं, उन्हें वह मात्र जानता ही है, उनका कर्त्ता नहीं बनता। _ज्ञानी उस राग संबंधी ज्ञान का कर्ता तो है; परन्तु उस रागभाव का कर्ता नहीं है। ज्ञानी के सभी भाव ज्ञान की जाति का उल्लंघन नहीं करते; अत: उसके सभी भाव ज्ञानमय ही हैं; परन्तु अज्ञानी जो व्रत, तपादि के भाव करता है, वह उन भावों का उल्लंघन नहीं कर पाने से उसके सभी भाव अज्ञानमय होते हैं _ 'जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि' अर्थात् अज्ञानी की दृष्टि राग पर है, इस कारण उसके रागमय परिणाम की सृष्टि होती है। धर्मीजीव की दृष्टि राग से भिन्न अपने चैतन्यस्वभाव पर है; अतः उसके ज्ञानमय परिणाम की सृष्टि होती है।
अज्ञानी को व्रत, तप, संयम, उपवास, ब्रह्मचर्य आदि के जो भाव होते हैं, वैरागमय हैं; क्योंकि उसे उनमें एकत्वबुद्धि है। इसकारण अज्ञानी के सभी