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समयसार अनुशीलन
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परिणाम का ही कर्ता होता है। ज्ञानी के ज्ञानमय ही भाव होते हैं, राग ज्ञानी का कर्तव्य (कार्य) नहीं है।
भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यघन अनन्तगुणमय पवित्रधाम प्रभु स्वयं 'स्व' है और जो दया-दान, भक्ति आदि के विकल्प उठे, वे 'पर' हैं। अज्ञानी को ऐसा निर्मल भेदज्ञान नहीं होता। स्वपर का भेदज्ञान नहीं होने से वह अज्ञानमय भावों का कर्ता होता है, अर्थात् दया, दान, व्रत, भक्ति आदि के जो विकल्प उठते हैं, उनका वह कर्ता होता है।"
इसप्रकार इन गाथाओं में यह स्पष्ट किया गया कि ज्ञानी आत्मा अपने ज्ञानभावों का कर्ता होता है और अज्ञानी अज्ञानभावों का कर्त्ता होता है।
इन गाथाओं के बाद जो कलश आता है, उसमें यह प्रश्न उठाया गया है कि अज्ञानी अज्ञानभावों का ही एवं ज्ञानी आत्मा ज्ञानभावों का ही कर्ता क्यों होता है ? इस प्रश्न का उत्तर आगामी गाथाओं में दिया जायगा। वह कलश मूलतः इसप्रकार है -
( आर्या ) ज्ञानमय एव भावः कुतो भवेत् ज्ञानिनो न पुनरन्यः । अज्ञानमयः सर्वः कुतोऽयमज्ञानिनो नान्यः ॥६६॥
(रोला) ज्ञानी के सब भाव शुभाशुभ ज्ञानमयी है । अज्ञानी के वही भाव अज्ञानमयी है ॥ ज्ञानी और अज्ञानी में यह अन्तर क्यों है ।
तथा शुभाशुभ भावों में भी अन्तर क्यों है ॥६६॥ यहाँ प्रश्न यह है कि ज्ञानी को ज्ञानमयभाव ही क्यों होते हैं, उसके अज्ञानमयभाव क्यों नहीं होते ? इसीप्रकार अज्ञानी के सभी भाव अज्ञानमय क्यों होते हैं, उसके ज्ञानमयभाव क्यों नहीं होते ?
१. प्रवचनरत्नाकर, भाग ४, पृष्ठ २५४ २. वही, पृष्ठ २५४