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समयसार गाथा १२६-१२७......... ६५वें कलश के बाद तत्काल आने वाली गाथा १२६ की उत्थानिका आत्मख्याति में मात्र 'तथाहि' शब्द के रूप में ही दी गई है। तथाहि' शब्द का आशय ही यह है कि जो बात अभी-अभी कही गई है, अब उसी को विस्तार से समझाते हैं । इसका आशय यह है कि ६५वें कलश में समागतभाव को ही आगामी गाथाओं में विस्तार से स्पष्ट किया जायगा।
६५वें कलश में यह कहा गया है कि जीव अपनी स्वभावभूत परिणामशक्ति के कारण जिस-जिस भाव रूप परिणमित होता है, वह उन-उन भावों का कर्ता होता है। अतः अब आगामी गाथाओं में उसी भाव को स्पष्ट कर रहे हैं।
जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स कम्मस्स। णाणिस्स स णाणमओ अण्णाणमओ अणाणिस्स ॥१२६॥ अण्णाणमओ भावो अणाणिणो कुणदि तेण कम्माणि ।
णाणमयो णाणिस्स दुण कुणदि तम्हा दु कम्माणि ॥१२७॥ • जो भाव आतम करे वह उस कर्म का कर्ता बने।
ज्ञानियों के ज्ञानमय अज्ञानि के अज्ञानमय ॥१२६॥.... अज्ञानमय हैं भाव इससे अज्ञ कर्ता कर्म का। बस ज्ञानमय हैं इसलिए ना विज्ञ कर्ता कर्म का ॥१२७॥ .. आत्मा जिस भाव को करता है, वह उस भावरूप कर्म का कर्ता होता है। ज्ञानी के वे भाव ज्ञानमय होते हैं और अज्ञानी के अज्ञानमय। अज्ञानी के भाव अज्ञानमय होने से अज्ञानी कर्मों को करता है और ज्ञानी के भाव ज्ञानमय होने से ज्ञानी कर्मों को नहीं करता।
इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
"इसप्रकार यह आत्मा स्वयमेव परिणामस्वभाववाला है और अपने जिस भाव को करता है, कर्मपने को प्राप्त उस भाव का कर्ता होता है। तात्पर्य यह