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खण्ड १ | जीवन ज्योति
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पू. प्र. श्री ज्ञानश्रीजी म. सा. की चारित्र के प्रति अनुपम निष्ठा थी। नित्य-प्रति आप प्रातः दो-ढाई बजे उठकर माला-ध्यान-जप-स्वाध्याय आदि धर्मप्रवृत्तियों में लग जातीं। नवकार-मंत्र अथवा अजापजप तो सतत चलता ही रहता था । आपकी अप्रमत्त दशा अनुकरणीय थी।
आपकी सरलता, सौम्यता तो देखते ही बनती थी । प्रवर्तिनी पद (सर्वोच्च पद) पाकर भी कभी आदेश की भाषा का प्रयोग नहीं करती थीं । आपको वचनसिद्धि भी प्राप्त थी। जो उनके मुख से निकल जाता, अवश्य पूरा होता।
आपकी निर्दोष जीवनचर्या को देखकर चौथे आरे की साध्वियों का स्मरण हो आता था। ऐसी महान् गुरुवर्या की निश्रा में चरितनायिका सज्जनश्रीजी का प्रथम वर्षावास हुआ।
वर्षावास पूर्ण होते ही पूज्या प्रवर्तिनी ने आपश्री (सज्जनश्रीजी) की बड़ी दीक्षा कराने हेतु आपको आपकी परमोपकारिणीश्री उपयोगश्रीजी म. सा०, श्री बसन्तश्रीजी म. सा०, तथा सज्जनश्रीजी म० के साथ ही दीक्षिता श्रीविबुधश्रीजी म० आदि ७ साध्वीजी को लोहावट फलोदी की ओर प्रस्थान करवाया।
सभी साध्वीजी म० की हार्दिक इच्छा प्रत्यक्ष प्रभावी दादा श्री जिनकुशल गुरुदेव के दर्शनार्थ मालपुरा जाने की थी। अतः मालपुरा की ओर विहार किया। सातवें दिन पूज्य गुरुदेव के चरणों में पहुँचे, दर्शन किये, चित्त को प्रसन्नता के साथ हार्दिक शांति की अनुभूति हई।
दादाबाड़ी से कुछ ही दूरी पर मालपुरा गाँव था, वहाँ के श्रावक भी दर्शन-वन्दन हेतु आ जाते, रात्रि में कथा-कहानी तथा प्रातः प्रवचन होते । इस प्रकार धर्म-जागरणा करते हुए वहाँ एक मास तक रहे । वहाँ से आप सबने टोड़ा केकड़ी की ओर प्रस्थान किया।
___ मार्ग के कई ग्रामों को आपथी ने फरसा। आपकी मधुरवाणी से जनता प्रभावित होती, व्याख्यान-सज्झाय आदि के सुन्दर माहौल से जनता की धर्म को ओर रुचि होती। कई लोगों ने तो चलतेफिरते (त्रस जीव) जीवों की संकल्पपूर्वक हिंसा और मद्य-मांसादि अभक्ष्य वस्तुओं का जीवन भर के लिए त्याग कर दिया, कई बहनों ने जूए मारने तथा गाली-गलौच-अपशब्दों को बोलने का त्याग कर दिया। पौष मास तो टोड़ा केकड़ी में ही पूर्ण हो गया।
माघ मास में सरवाड़ सराणा, ठाँठोरी, मसूदा आदि छोटे-छोटे ग्रामों में विचरण किया।
यद्यपि इन क्षेत्रों में जैनों की संख्या काफी थी पर बहुत दिनों से साधु-साध्वियों का विचरण न होने से इनके धार्मिक संस्कार लुप्त से हो गये थे । कुछ क्षेत्रों में साधुमार्गी आम्नाय का प्रभाव अवश्य दृष्टिगोचर हुआ।
परिणाम यह हुआ कि मंदिर के प्रति लोगों को अश्रद्धा हो गई । दर्शन, पूजन की बात तो बहुत दूर, लोगों ने मन्दिर जाना ही छोड़ दिया । मन्दिरों के कपाट ही बन्द हो गये। इतना अवश्य था कि कोई मन्दिरमार्गी साधु-साध्वी आ जाते तो किवाड़ खोलकर उन्हें दर्शन करा देते थे; लेकिन वे यदाकदा ही आते अतः मन्दिरों के किवाड़ अधिकांशतः बन्द ही रहते । स्थिति यहाँ तक आ गई थी कि मंदिर जीर्ण-शीर्ण हो गये, धुल जम गई, अन्दर मकड़ियों ने जाले बुन दिये, चमगादडों ने निवास बना लिये, बिच्छू आदि उत्पन्न हो गये, सूक्ष्म जीवों की भरमार हो गई।
सज्जनश्री आदि साध्वी मंडल का जब इन क्षेत्रों में विचरण हुआ तो लोग काना-फूसी आपस में करने लगे-बिना मुहपत्ति वाले साधु-साध्वीजी महाराज भी होते हैं क्या ? वन्दन करने का तो प्रश्न ही नहीं, कई लोग तो खिल्लियाँ भी उड़ाते ।
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