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खण्ड १ | जीवन ज्योति
महरौली में ही विशाल मणिधारी नगर बसा था । दिल्ली संघ ने आवास निवास की समुचित व्यवस्था की थी । आगन्तुकों का जैसा प्रेमपूर्ण स्वागत किया था, वह आज भी स्मरणीय है । (विशेष विवरण अष्टम शताब्दी समारोह पत्रिका में दिया गया है - जिज्ञासु वहाँ देखें ।)
यद्यपि हम लोगों का विचार बनारस जाने का था पर निमित्त ऐसा बना कि पुनः हस्तिनापुर जाना पड़ा । कारण था - वर्षीतप का पारणा । यहाँ पर श्री चन्द्रप्रभाजी, मुक्तिप्रभाजी, विजयप्रभाजी, ज्योतिप्रभाजी एवं निरंजनाश्रीजी आदि ५ के वर्षीतप चल रहा था । हस्तिनापुर दिल्ली से सिर्फ ६० माइल दूरी पर है और यहीं प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का प्रथम पारणा हुआ था अतः सभी की भावना हस्तिनापुर पारणा करने की थी । वैशाख सुदी ३ ( अक्षय तृतीया) का दिन भी समीप था और जैन कोकिला पू० श्री विचक्षणश्री का आमन्त्रण भी । अतः पुनः हस्तिनापुर के लिए प्रस्थान किया ।
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पूज्य उदयसागर जी म. सा. पू० अनुयोगाचार्य श्री कान्तिसागर जी म. सा. आदि तथा सर्व साध्वीमंडल एवं कई श्रावक-श्राविकाएँ दिल्ली से प्रस्थान करके गाजियाबाद पधारे । यहाँ भी मंदिर की प्रतिष्ठा करवानी थी । अतः गाजियाबाद संघ के आग्रह से पू० अनुयोगाचार्य जी म० सा० वहीं रुके ।
आपश्री सर्व संघ के साथ हस्तिनापुर पहुँचे । अक्षय तृतीया के दिन सभी तपस्विनी बहनों का पारणा हुआ । बड़ी पूजाएँ आदि रखी गई। पूज्या श्री मनोहरश्रीजी व मुक्तिप्रभाजी के भाई ने पारणे के अवसर पर भजन गाकर भक्ति रस साकार ही कर दिया ।
वैशाख शुक्ला ४ के दिन चन्द्रप्रभाजी की मातुश्री धापूबाई की दीक्षा पू० गुरुदेव की निश्रा में सम्पन्न हुई। उन्हें वर्द्धमानश्रीजी नाम दिया गया ।
वैशाख शुक्ला ५ को यहाँ से विहार किया । प्रमोद श्रीजी की शिष्या श्री चन्द्रोदयश्री जी एवं स्वयंप्रभाश्री जी भी सम्मेत शिखर जी तीर्थों की यात्रा हेतु साथ हो गई । बुलन्दशहर, एटा, अलीगढ़ होते हुए काम्पिलपुर तीर्थ गये । यहाँ विमलनाथ तीर्थंकर के तीन कल्याणक हुए हैं। दर्शन किये । चित् प्रसन्न हुआ । आगे बढ़कर कानपुर पहुँचे । वहाँ पृ० श्री भुवनभानुविजयजी म. सा. के आनन्दपूर्वक दर्शन किये। पूज्यश्री संयम तप की साक्षात प्रतिमा हैं । सब मन्दिरों के दर्शन किये । ८ दिन ठहरे । यद्यपि जाना तो बनारस था पर समय कम था वर्षा भी शुरू हो चुकी थी अतः लखनऊ की ओर प्रस्थान किया । लखनऊ से एक-डेढ़ किलोमीटर दूर एक धर्मशाला में विराजे ।
लखनऊ में जयपुर निवासी सेठ श्री हमीरमलजी साहब गोलेच्छा की पौत्री और श्री मनोहर लाल जी की सुपुत्री माणकबाई का ससुराल था । वे जब भी जयपुर आतों चरितनायिका जी से लखनऊ फरसने की भावभरी विनती करती और चरितनायिका जी वर्तमान योग अथवा यथायोग छोटा सा उत्तर दे देतीं ।
इस बार सहज ही संयोग बन गया लखनऊ आने का । साथ वाले भाई को माणकबाई के नाम पत्र दिया । पत्र मिलते ही माणकबाई हर्षाश्चर्य मिश्रित भाव हृदय में लिये आईं । चरितनायिका जी के दर्शन-वन्दन किये। हर्ष से नेत्र सजल हो गये। सभी साध्वियों के दर्शन-वन्दन किये, सुख- साता पूछी और लौटकर लखनऊवालों को आपश्री के आगमन के समाचार दिये । उनके तो मन मयूर ही नाच उठे । बड़े उत्साह और धूमधाम से नगर प्रवेश कराया ।
खण्ड १/७
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