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खरतर गच्छ का संक्षिप्त परिचय : महोपाध्याय विनयसागरजी जिनपति सूरि श्री जिनमतोपाध्याय, पण्डित श्री स्थिरचन्द्र, वाचनाचार्य मानचन्द्र आदि मुनिवृन्द के साथ राज्यसभा में पहुँचे । इधर पद्मप्रभ आचार्य भी भाट-बटुकों के साथ सभा में पहुँचे। महाराजा पृथ्वीराज ने सिंहासन पर बैठने के पश्चात् प्रधानमन्त्री कैमास को आज्ञा दी कि पण्डित वागीश्वर, जनार्दन गौड़ और विद्यापति आदि राजपण्डितों के समक्ष इन दोनों का शास्त्रार्थ होने दो। शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ। पद्मप्रभ को व्याकरण, साहित्य, दर्शन, कुन्दशास्त्रों का पूर्णज्ञान न होने के कारण वह राजपण्डितों के समक्ष पराजित सा होने लगा, मरता क्या न करता, आखिर पद्मप्रभ ने इन्द्रजाल और अन्त में मल्लयुद्ध के लिये आह्वान किया। जिनपतिसूरि के अनन्य भक्त सेठ रामदेव के साथ शास्त्रार्थ के बदले राज्यसभा में मल्लयुद्ध भी हुआ। अन्त में तिरस्कृत एवं अपमानित होकर राजकीय पुरुषों ने उसका गला पकड़कर उसे राज्यसभा के बाहर निकाला।।
आचार्यश्री के असाधारण ज्ञान को देखकर राजपंडितों ने जिनपतिसूरि को विजयी घोषित किया। और महाराजा पृथ्वीराज आचार्यश्री के सौम्य और शान्त मुद्रा तथा अगाध पांडित्य को देखकर अत्यन्त प्रमुदित हुए और जयपत्र बड़े महोत्सव के साथ हाथी के हौदे पर रखकर आचार्यश्री के पास भिजवाया गया। महाराजा पृथ्वीराज स्वयं जयपत्र देने के लिए उपाश्रय पधारे थे । (इस शास्त्रार्थ का विशेष अध्ययन करने के लिए देखें :-जिनपालोपाध्याय प्रणीत गुर्वावलि, पृष्ठ २५ से ३४ ।)
सूरिजी महाराज अजमेर से विहार कर १२४० में विक्रमपुर आये, वहाँ चौदह मुनियों के साथ - छः मास तक गणि योग तप किया । संवत् १२४१ में फलौदी पधारे, वहाँ जिननाग आदि पाँच साधुओं एव
धर्मश्री आदि दो साध्वियों को दीक्षा प्रदान की। फलवधि में ही संवत् १२४२ माघ सुदी पूर्णिमा के दिन जिनमतोपाध्याय का स्वर्गवास हुआ । संवत् १२४३ का चार्तुमास खेड नगर किया, वहाँ से अजमेर पधारे। संवत १२४४ में अनहिलपर पाटण का निवासी अभयकुमार नामक श्रावक महाराजा भीमसिंह और उनके प्रधानमन्त्री जगदेव से 'खरतरसंघ' के नाम से तीर्थयात्रा संघ निकालने का आदेश प्राप्त कर अजमेर आचार्य श्री के पास पहुँचा । अजमेरवासी श्री संघ की प्रार्थना स्वीकार कर आचार्यश्री ने तीर्थ यात्रा हेतु प्रस्थान किया। इधर आचार्य श्री के दो शिष्य जिनपाल गणि और धर्मशील गणि जो त्रिभवनगिरि में यशोभद्राचार्य के पास न्यायदर्शन शास्त्र का अध्ययन कर रहे थे, वे भी आचार्यश्री की आज्ञा प्राप्त कर शीलसागर और सोमदेव को साथ लेकर त्रिभुवनगिरि के श्रीसंघ के साथ संघ में सम्मिलित हुए । यात्रा का आमंत्रण प्राप्त कर विक्रमपुर, उच्चा, मरुकोट, जैसलमेर, फलौदी, दिल्ली, बागड़ और माण्डव्यपुर आदि नगरों के संघ भी इस यात्रा संघ में आकर सम्मिलित हुए। संघ प्रयाण करता हुआ चन्द्रावती नगरी पहुँचा, वहाँ पूर्णिमा गच्छ के प्रामाणिक आचार्य अकलंकसूरि पाँच आचार्यों के साथ आये और आचार्य जिनपतिसूरि के साथ उनका मिलन हुआ । आचार्य अकलंक की आचार्य जिनपति के साथ जिनपति नाम को लेकर व्याकरणिक दृष्टि से चर्चा हुई और आचार्य जिनपति के असाधारण वैदुष्य से आचार्य अकलंक प्रभावित हुए । साथ ही साधु तीर्थ यात्रा में संघ के साथ जायें या नहीं आदि अनेक शास्त्रीय विषयों पर भी चर्चा हुई । अन्त में अत्यन्त प्रसन्न होकर आचार्य अकलंक ने कहा-'खरतराचार्य, आप वास्तव में वादलब्धि सम्पन्न हैं।'
वहाँ से संघ के साथ आचार्यश्री चन्द्रावती नगरी पहुँचे । वहाँ पौर्णमासिक गच्छावलम्बी श्री तिलकसूरि के साथ नैयायिक दृष्टि से अनेक विषयों पर चर्चा हुई। इस पण्डित गोष्ठी से आचार्य तिलकप्रभ अत्यन्त प्रमुदित हुए और आचार्य जिनपति की अधिकाधिक प्रशंसा करने लगे। - इसके बाद संघ वहाँ से चलकर आशापल्ली पहुँचा। वहाँ वादी-देवाचार्य की पोषधशाला में विराजमान प्रद्म म्नाचार्य से सेठ क्षेमन्धर का वार्तालाप हुआ। वार्ता के मध्य सेठ क्षेमन्धर को पित
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