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ख रतरगच्छ की संविग्न साधु परम्परा का परिचय : मंजुल विनयसागर जैन
आपने अनेक स्थानों पर प्रतिष्ठाएँ करवाई। दादाबाड़ियों का निर्माण करवाया। अनेकों उपधान तप करवाये । नाकोड़ा तीर्थ जैसे क्षेत्र में खतरगच्छ का डंका बजवाया। और, बाडमेर से शत्रुजय का जो पैदल यात्री संघ निकाला था, वह वास्तव में वर्णनीय था। इस यात्रा में एक हजार व्यक्ति थे। लगभग १०० वर्ष के इतिहास में खरतरगच्छ के लिए यह पहला अवसर था कि इतनी दूरी का और इतने समह का एक विशाल यात्री संघ निकला। आपने कई संस्थायें भी निर्माण की । खरतरगच्छ की वृद्धि के लिए आप सतत प्रयत्नशील रहते थे।
१३ जून १९८२ को जयपुर में श्री संघ ने आपको आचार्य पद से विभूषित किया, तभी से आप जिनकान्तिसागर सूरि के नाम से विख्यात हुए।
संवत् २०४२ मिगसर बदि ७ को माण्डवला में अकस्मात हृदय गति रुक जाने से आपका स्वर्गवास हो गया।
आपके शिष्यों में गणि मणिप्रभसागरजी, मनोज्ञसागरजी, मुक्तिप्रभसागरजी, सुयशप्रभसागरजी, महिमाप्रभसागरजी, ललितप्रभसागरजी, चन्द्रप्रभसागरजी, आदि विद्यमान हैं। गणि मणिप्रभसागरजी अच्छे विद्वान हैं, व्यवहारपटु हैं, कार्य दक्ष हैं और खरतरगच्छ की सेवा में संलग्न हैं । मुनि महिमाप्रभसागरजी अपने दो शिष्यों-ललितप्रभसागर और चन्द्रप्रभसागर को योग्य विद्वान बनाने में प्रयत्नशील हैं ।
२. श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिजी का समुदाय नाकोड़ातीर्थ के संस्थापक और प्रतिष्ठापक आचार्य कीतिरत्नसूरि से उनके नाम पर एक परम्परा चली जो खरतरगच्छ की एक उपशाखा के रूप में कीर्तिरत्नसूरि शाखा के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसी परम्परा में मूलतः कृपाचन्द्रसूरि थे। इनका जन्म जोधपुर राज्य के चातु गाँव में सं० १६१३ में हुआ था। इनके पिता का नाम बाफना मेघराजजी था और माता का नाम था अमरा देवी । यतिवर्य मुक्तिअमृत के पास यति दीक्षा सन् १६३६ में ग्रहण की थी। यति अवस्था में रहते हुए जब उन्हें अनुभव हआ कि हमारा आचार-व्यवहार शास्त्र युक्त नहीं है और यति वर्ग में परम्परा के दुराग्रह को लेकर द्वन्द्व-युद्ध एवं लट्ठालठी देखी तो उन्होंने क्रियोद्धार करने का निश्चय किया । यति अवस्था में बीकानेर में इनके पास प्रचुर सम्पत्ति थी। उस सब का त्यागकर क्रियोद्धार कर संविग्न साधु बने । आपने क्रियोद्धार करने के पश्चात खेरवाड़ा आदि स्थानों पर प्रतिष्ठाएँ करवाईं। कच्छ में उपधान तप करवाये । अनेक स्थानों से आपकी उपस्थिति में संघ निकले और अनेक भव्य जीवों को प्रतिबोध देकर आपने साधु धर्म में दीक्षित किया।
संवत १९७२ में आपका चातुर्मास बम्बई लालबाग में था । उसी समय संघ ने बड़े महोत्सव के माथ इनको आचार्य पद पर अभिषिक्त किया । सूरिमंत्र श्री पूज्य श्री जिनचारित्रसूरिजी ने आपको प्रदान किया। सूरत में जिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार की स्थापना की। संवत् १९८२ में बाडमेर में एक दिन में ही ४०० व्यक्तियों की मुँहपत्ती तुड़वा कर जिन प्रतिमा के प्रति श्रद्धावान बनाया । जैसलमेर ज्ञान भंडार के अनेक ताडपत्रीय ग्रन्थों का जीर्णोद्धार करवाया । आपके उपदेशों से इन्दौर, सूरत, और बीकानेर आदि में ज्ञान भंडार, पाटशालायें एवं कन्याशालाओं का निर्माण हुआ था। पालीताणा में कल्याण भवन, चांदभवन आदि धर्मशालायें तथा जिनदत्तसूरि ब्रह्मचर्याश्रम आदि संस्थाओं की स्थापनाओं में मुख्य प्रेरणा स्रोत आप ही थे।
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