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खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ
रतलाम, महीदपुर तथा छोटे-मोटे सभी गाँव-नगरों में खरतरगच्छीय साधु-साध्वियों तथा यतिजनों के चातुर्मास होते रहे हैं। तीर्थस्थानों में भी सर्वत्र उनके कीर्तिकलाप विद्यमान हैं। मेवाड़ के सभी नगरों का प्राचीन इतिहास खरतरगच्छ से ओत-प्रोत है । श्रीजिनवर्द्ध नसूरि परम्परा के मुनिजन उधर विचरते थे। धीरे-धीरे अनेक गाँव अमूर्तिपूजकों द्वारा तिमिराच्छन्न हो गये। श्री केशरियाजी तीर्थ तो राजमान्य एवं सर्वमान्य है। मेवाड़ और तत्रस्थ तीर्थों की उन्नति में जैसलमेर के पटवा सेठों की महान् सेवाओं से उपकृत है। चित्तौड़, उदयपुर का प्राचीन इतिहास खरतरगच्छ इतिवृत्त आलोकित है।
आगे गुजरात की ओर बढ़े तो अकेले अहमदाबाद के ही दस-बारह मन्दिर केवल सोमजीशिवा द्वारा निर्मापित हैं। यहाँ खरतरगच्छीय आचार्यों, उपाध्यायों, वाचनाचार्यो की विचरण भूमि मुख्यतः थी। पाटण नगर तो खरतरगच्छ के गुजरात प्रवेश का विजय स्तम्भ ही रहा है। खम्भात, सूरत, आदि नगर भी खरतरगच्छ की महान् सेवाओं के मुख्य स्थल रहे हैं। श्रीजिनचन्द्रसूरि, समयसुन्दरोपाध्याय, कविवर जिनहर्ष, कविवर विनयचन्द तथा श्रीमद्देवचन्द्र जी महाराज की सेवाएँ चिरकाल तक संप्राप्त हुईं। इन सभी महापुरुषों की महाप्रयाण भूमि भी यही थी। श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज ने श@जय तीर्थोद्धार के लिए अपने जीवन के ३५ वर्ष गुर्जरभूमि की शासन-सेवा और महातीर्थ के उद्धार में व्यतीत किये। जहाँ अमूर्तिपूजक प्रचार से गुजरात-सौराष्ट्र में अन्धकार प्रसरित हो गया था वहाँ आपश्री ने अपने उपदेशों द्वारा अहमदाबाद, सूरत, ध्रांगधा, लीवड़ी, भावनगर, जामनगर, चूड़ा, आदि में विचरण कर श्रावकों को जिनभक्ति के श्रद्धालु बनाकर अनेक स्थानों में जिनालयों को प्रतिष्ठा कराई। उजड़ते हुए शत्रुजय तीर्थ को आबाद कर दिया। पालीताना, जूनागढ़ आदि सर्वत्र खरतरगच्छ का जबरदस्त प्रभाव रहा है।
बम्बई का प्रारम्भिक इतिहास देखें तो वहाँ जो ७ मन्दिर थे उनमें से एक अंचलगच्छ का था और अवशिष्ट सभी नाहटा मोतीशाह, जो राजस्थान से ही खंभात, सूरत आदि स्थानों में होते हुए अगासी (बम्बई) में आकर पेढी खोली, चीन आदि देशों से जहाजी व्यापार बहुत बड़े पैमाने पर किया । गौड़ीजी की प्रतिमा जी वे राजस्थान से साथ ही लाये थे। भायखला, कोट, चिन्तामणिजी (भोइवाड़ा) आदि सभी मन्दिर उनके द्वारा बनवाये गये थे । चिन्तामणिजी के मन्दिर में बीकानेर का कोठारी परिवार साथी था। इसी कोठारी परिवार द्वारा सं० १८५६ में पूना की दादाबाड़ी निर्मापित है। यतिवर्य अमरसिंधुर जी ने आठ वर्ष तक चातुर्मास कर चिन्तामणि पार्श्वनाथ प्रभु के चरणों में अपनी सेवाएं दी थीं । बम्बई में साधु विहार खरतरगच्छ भूषण श्री मोहनलालजी महाराज ने ही खोला था, जहाँ साधु लोग अनार्य देश समझ कर आने से कतराते थे। मोहनलालजी महाराज गच्छवाद में निराग्रही थे। उनके शिष्य भी क्रिया विधि में स्वतन्त्र और अनाग्रही थे पर उनकी दीक्षा में परम्परा खरतरगच्छ की ही प्रव्रजित की जाती है।
अब मैं कच्छ देश, जो अब गुजरात के अन्तर्गत ही है उसके सम्बन्ध में कुछ विचार करता हूँ। कच्छ देश भद्रेश्वर नामक प्राचीनतम तीर्थ के कारण अत्यन्त प्रसिद्ध है । राजस्थान के जैसलमेर की तरफ से आकर बसे हुए ओसवाल आदि जैन जातियाँ यहाँ धर्म और अर्थ में काफी प्रसिद्ध हैं। तीर्थराज सिद्धाचख जी पर यहाँ के अधिवासियों के मन्दिरादि /टोंकें बनी हुई है। बम्बई में भी इनके मन्दिर, उपाश्रय प्रसिद्ध हैं। अब सम्मेतशिखरजी में भी जिनालय व धर्मशाला आदि हो गये हैं। यहाँ के चार मुख्य नगरों में खरतरगच्छ का संघ निवास करता है, वे हैं-भुज, माण्डवी, अंजार और मुंद्रा । यहाँ दादावाड़ी और मन्दिर आदि भी हैं। बडाला, तंवड़ी आदि में भी घर थे पर साधु समुदाय का विचरण न होने से
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