Book Title: Sajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Shashiprabhashreeji
Publisher: Jain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur

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Page 534
________________ क्रोध : स्वरूप एवं निवृत्ति के उपाय : साध्वी हेमप्रज्ञाश्री (१) क्रोध (२) कोप (३) रोष (४) दोष (५) अक्षमा (६) संज्वलन (७) कलह (८) चाण्डिक्य (8) भंडन (१०) विवाद। भगवती सूत्र के वृत्तिकार ने इनका विवेचन इस प्रकार किया है (१) क्रोध-'क्रोध परिणामजनकं कर्म तत्र क्रोधः क्रोध परिणामों को उत्पन्न करने वाले कर्म का सामान्य नाम क्रोध है । अन्तरंग में क्रोध के कर्मपरमाणुओं का उदय होने पर कभी-कभी व्यक्ति बाह्य निमित्त न होने पर भी अपने भावों में क्रोध का अनुभव करता है और निमित्त मिले तो उस क्रोध को अभिव्यक्त भी कर देता है। (२) कोप-वृत्तिकार के अनुसार-"कोपादयस्तु तद्विशेषाः' विशेष क्रोध ही कोप है । वृत्ति अनुवादक ने कोप का अर्थ इस प्रकार किया है-क्रोध के उदय को अधिक अभिव्यक्त न करना कोप है। कई व्यक्तियों का क्रोध बडवाग्नि के समान होता है-बाह्य दृष्टि से सागरवत् गंभीर किन्तु अन्तरंग में ज्वाला। अभिधान राजेन्द्र कोष में 'कोप' शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है -कोप कामाग्नि से उत्पन्न होने वाली एक चित्तवृत्ति है । वह प्रणय और ईर्ष्या से उत्पन्न होती है। इसी प्रसंग में कोषकार ने साहित्यदर्पण की व्याख्या भी प्रस्तुत की है । साहित्यदर्पण के अनुसार प्रेम की कुटिल गति के कारण जो कारण बिना होता है वह कोप है। (३) रोष-भगवती वृत्ति के अनुसार--'रोष क्रोधस्यैवानुबन्धो'-जो क्रोध सतत् चलता रहता है जिसमें क्रोध की परम्परा बनी रहती है वह रोष है। रोष में क्रोध का प्रसंग समाप्त होने पर भी हृदय में क्रोध की ज्वाला शान्त नहीं होती। अतः व्यक्ति कार्य करता है किन्तु उसका कार्य ही उसवे क्रोधाविष्ट होने का परिचय देता रहता है । कई व्यक्ति जोर-जोर से वस्तु फेंकना, उठाना, पाँव पटकपटक कर चलना, झनझनाहट आदि क्रियाओं से अपने क्रोध का परिचय देते रहते हैं। (४) दोष-वृत्तिकार के अनुसार----'दोषः आत्मनः परस्य वा दूषणमेतच्च क्रोधकार्य द्वषो वा प्रीतिमात्रं ।' स्वयं को अथवा दूसरे को दूषण देना-क्रोध का कार्य है अतः दोष क्रोध का समानार्थक नाम है। दोष का अपर नाम द्वेष भी है । अप्रीति परिणाम द्वेष है। क्रोधावेश में व्यक्ति स्वयं पर या दूसरे पर भयंकर दूषण/लांछन लगा देता है-यह दोष है। (५) अक्षमा-'अक्षमा परकृतापराधः'6-दूसरे के अपराध को सहन न करना-अक्षमा है । प्रायः व्यक्ति अपने से सत्ता, सम्पत्ति, पद में बड़े व्यक्ति के अपराध/क्रोध को चुपचाप सहन कर लेता है क्योंकि जानता है कि सहने में ही लाभ है । किन्तु अपने से निम्न वर्ग पर-वह परिवार ही अथवा भृत्यवर्गउनके अपराध को सहन न करके उनके अपराध से भी अधिक दण्ड देता है। १. भगवती सूत्र-अभयदेवसूरिवृत्ति, श. १२, उ. ५, सू. २ २. भगवती सूत्र-अभयदेवसूरिवृत्ति, श० १२, उ० ५, सू० २ ३. अभिधान राजेन्द्र कोष, भाग ७, पृ. १०६ ४. भगवती सूत्र-अभयदेवसूरिवृत्ति, श. १२, उ. ५, सू. २ ५. भगवती सूत्र, श. १२, उ. ५, सू. २ की वृत्ति ६. भगवती सूत्र-श० १२, उ० ५, सू० २ की वृत्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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