Book Title: Sajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Shashiprabhashreeji
Publisher: Jain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur

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Page 554
________________ १२६ जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन अपने गर्भकाल में ले लिया था। इस प्रकार नारी वासुदेव और तीर्थंकर द्वारा भी पूज्य मानी गयी है । महानिशीथ में कहा गया है कि जो स्त्री भय, लोकलज्जा, कुलांकुश एवं धर्मश्रद्धा के कारण कामाग्नि के वशीभूत नहीं होती है, वह धन्य है, पुण्य है, वंदनीय है, दर्शनीय है, वह लक्षणों से युक्त है, वह सर्वकल्याणकारक है, वह सर्वोत्तम मंगल है, (अधिक क्या) वह (तो साक्षात्) श्रु त देवता है, सरस्वती है, अच्युता है परम पवित्र सिद्धि, मुक्ति, शाश्वत शिवगति है । (महानिशथि २/ सूत्र २३ पृ० ३६) जैनधर्म में तीर्थंकर का पद सर्वोच्च माना जाता है और श्वेताम्बर परम्परा में मल्ली कुमारी को तीर्थकर माना गया है । इसिमण्डलत्थू (ऋषिमण्डल स्तवन) में बाह्मी, सुन्दरी, चन्दना आदि को वन्दनीय माना गया है। तीर्थंकरों की अधिष्ठायक देवियों के रूप में चक्र श्वरी, अम्बिका, पद्मावती, सिद्धायिका आदि देवियों को पूजनीय माना गया है और उनकी स्तुति में परवर्ती काल में अनेक स्तोत्र रचे गये हैं । यद्यपि यह स्पष्ट है कि जैनधर्म में यह देवी-पूजा की पद्धति लगभग गुप्त काल में हिन्दू परम्परा के प्रभाव से आई है । उत्तराध्ययन एवं दशवकालिक की चूणि में राजीमति द्वारा मुनि रथनेमि को तथा आवश्यक चुणि में ब्राह्मी और सुन्दरी द्वारा मुनि बाहुबली को प्रतिबोधित करने के उल्लेख हैं' न केवल भिक्षुणियाँ अपितु गृहस्थ उपासिकाएँ भी पुरुष को सन्मार्ग पर लाने हेतु प्रतिबोधित करती थीं। उत्तराध्ययन में रानी कमलावती राजा इषुकार को सन्मार्ग दिखाती है, इसी प्रकार उपासिका जयन्ती भरी सभा में महावीर से प्रश्नोत्तर करती है तो कोशावेश्या अपने आवास में स्थित मुनि को सन्मार्ग १. नो खलु मे कप्पइ अम्मापितीहि जीवंतेहि मुण्डे भवित्ता अगारवासाओ अणगारियं पव्वइए। -कल्पसूत्र ६१ ( एवं ) गम्भत्थो चेव अभिग्गहे गेण्हति णाहं समणे होक्खामि जाव एताणि एत्थ जीवं तित्ति । -आवश्यकचूणि प्रथम भाग, पृ० २४२, प्र० ऋषभदेव जी केशरीमल श्वेताम्बर सं० रतलाम १६२८ २. तए णं मल्ली अरहा"केवलनाणदंसणे समुप्पन्न । - ज्ञाताधर्मकथा ८/१८६ ३. अज्जा वि बंभि-सुन्दरि-राइमई चन्दणा पमुक्खाओ। कालतए वि जाओ ताओ य नमामि भावेणं ।। -ऋषिमण्डलस्तव २०८ ४. देवीओ चक्केसरी अजिया दुरियारि कालि महाकाली । अच्चय संता जाला सुतारया असोय सिरिवच्छा॥ पवर विजयं कुसा पणत्ती निव्वाणि अच्चुया धरणी । वइरोट्टऽच्छुत्त गधारि अंब पउमावई सिद्धा ॥ -प्रवचनसारोद्धार, भाग १, पृ० ३७५-७६, देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था सन १९२२ ५. तीसे सो वयणं सोच्चा संजयाए सुभासियं । अंकूसेण जहा नागो धम्मे संपडिवाइयो । -उत्तराध्ययन सूत्र २२, ४८ (तथा) दशवकालिकचूणि, पृ० ८७-८८ मणिविजय सिरीज भावनगर । ६. भगवं बंभी-सुन्दरीओ पत्थ वेति"""इमं व भणितो । ण किर हत्थिं विलग्गस्स केवलनाणं उप्पज्जइ । -आवश्यक चूर्णि भाग १, पृष्ठ २११ ७. वंतासी पुरिसो रायं, न सो होइ पसंसिओ । माहणेणं परिचत्त धणं आदाउमिच्छसि ॥ .-उत्तराध्ययन सूत्र १४, ३८ एवं उत्तराध्ययनचूणि, पृ० २३० (ऋषभदेव केशरीमल संस्था रतलाम, सन् १९३३) ८. भगवती १२/२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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