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भारतीय नारी : युग-युग में और आज : राष्ट्रसन्त मुनिश्री नगराज जी
लगता है, नारी के प्रति रहा हीनता और उपेक्षा का भाव गोस्वामी तुलसीदासजी के समय तक तो बना ही रहा । उन्होंने स्वयं जो नारी को तर्जना के योग्य कहा, इससे उस युग तक की सामाजिक धारणाएँ ही प्रतिबिम्बित होती हैं। तुलसीदासजी के पश्चात् भी बहत समय तक भारतीय संस्कारों में वही धारणाएँ पनपती रहीं । लोक-धारणाएँ थीं--एक घर में दो कलमें नहीं चलती अर्थात पत्नी का पढना पति के लिये शुभ नहीं है। स्त्री के मानस में इतना भय भर दिया जाये, तो उसके पढ़ने का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है । बिना शिक्षा के अन्य विकास स्वयं कुण्ठित रह ही जाते हैं। नये युग में काराएँ कटी
नया युग आया । विज्ञान ने उक्त प्रकार के अन्धविश्वासों को कोसों दूर ढकेल दिया। सामाजिक व राजनैतिक क्षेत्र में ज्यों ही समानता और व्यक्ति-स्वातन्त्र्य के विचार उभरे, नारी की बहुत सारी काराएँ एक साथ कटीं। शिक्षा, साहित्य, राजनीति और सार्वजनिक क्षत्रों के द्वार प्रथम बार नारी के लिये खुले । युग-युग से सामाषिक घुटन में रही नारी मुक्त श्वास का वातावरण मिलते ही अप्रत्याशित रूप से आगे बढ़ गई। अव वह प्रधानमन्त्री के पद पर भी देखी जाती है और अन्य शीर्षस्थ पदों पर भी । सार्वजनिक क्षेत्र में भी वह पुरुष से पीछे नहीं है, उसने चन्द दिनों में यह प्रमाणित कर दिया कि अक्षमता और अयोग्यता परिस्थितिजन्य थीं, न कि नैगिक ।
स्वाधीनता के लिये नारी ने कोई विप्लव नहीं किया था। युग की करवट के साथ पुरुष का चिन्तन ही उदार और विकसित हुआ। उसने ही सोचा, समाज का एक अंग इस प्रकार प्रक्षाघात से पीड़ित रहे, यह किसी भी स्थिति में थेयस्कर नहीं है । वह नारी के साथ न्याय भी नहीं है । पुरुष की युगीन चेतना ने श्रमिकों को अवसर दिया, किसान को अवसर दिया, अछूत को अवसर दिया, इसी प्रकार नारी को भी अपने पैरों पर खड़ा होने का एवं अपनी सुषुप्त शक्तियों को विकसित करने का भी अवसर दिया है। हेय और उपादेय का मापदण्ड
वर्तमान युग ने भारतीय नारी को संक्रान्ति रेखा पर खड़ा कर दिया है, एक ओर उसके सामने सीता, सावित्री, आदि के शील व सेवा के आदर्श हैं, एक ओर उसके सामने अपने समानाधिकार के उपयोग का प्रश्न है । दूसरे शब्दों में एक ओर संस्कृति का प्रश्न है तथा एक ओर आधुनिक प्रगति का प्रश्न है । वर्तमान में संस्कृति विकृति मिश्रित हो रही है । उसके नाम पर नाना अन्धविश्वास, नाना रूढ़ियाँ चल रही हैं । नारी को अपनी हंस मनीषा से संस्कृति और विकृति का पृथक्करण करना होगा। प्रगति भी आज अन्धानुकरण से पीड़ित है । उसे भी अपनी स्वस्थ दशा में लाना होगा। इस प्रकार प्राचीन व अर्वाचीन की समन्वित रूप-रेखा पर भारतीय नारी का नया दर्शन खड़ा होगा।
__ भारतीय नारी को अपनी बद्धमूल धारणा का विसर्जन कर देना होगा कि प्राचीन है, वही श्रेष्ठ है । जो पूर्वपुरुषों ने कहा है, वही श्रेष्ठ है । प्राचीन में भी श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ दोनों रहे हैं। राम था, उसी युग में रावण था। सीता थी, उसी युग में शूर्पणखा थी । कृष्ण था, उसी यग में कंस और युधिष्ठिर था, उसी यग में दुर्योधन था। पूर्वपुरुषों ने जो कहा, अपनी समझ से अपने देश काल में कहा । आज नारी को अपनी समझ से अपने देश-काल में सोचना है । बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा-"भिक्ष ओ ! तुम इसलिए किसी बात को स्वीकार न करो, कि वह तथागत (बुद्ध) की कही हुई है। तुम वही बात स्वीकार करो, जिसके लिए तुम्हारा विवेक तुम्हें प्रेरित करता है।” अस्तु, हेय या उपादेय का मानदण्ड
नवीनता या प्राचीनता नहीं, मनुष्य का प्रबुद्ध विवेक ही उसका अन्तिम मानदण्ड है। भारतीय नारी Jain Education International For Private & Personal Use Only
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