Book Title: Sajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Shashiprabhashreeji
Publisher: Jain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur

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Page 583
________________ भारतीय संस्कृति में नारी परम लावण्य एवं सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति रही है । परिणामतः वह पुरुषों का आकर्षण केन्द्र बनी रही । प्राकृत साहित्य में वर्णित नारियाँ भी परमलावण्य एवं सौन्दर्य की खान रही हैं । यौवन अवस्था की देहली पर आरूढ़ होकर तरुणियाँ रति की प्राकृत साहित्य में तरह रूपवती दिखाई देने लगती हैं। ऐसी अनिन्द्य सुन्दरियों पर पुरुषों का आकर्षित होना स्वाभाविक है। किन्तु भारतीय नारियाँ ऐसे कामुक पुरुषों से संघर्ष करती हुई अपने शील को बचाने का प्रयत्न वर्णित शील-सुरक्षा करती रही हैं । ऐसे उल्लेख आगमसाहित्य मे लगाकर प्राकृत के स्वतन्त्र कथा ग्रन्थों तक में प्राप्त हैं। उनमें से शील-रक्षा के कतिपय प्रमुख उपाय इस प्रकार हैंके उपाय १. दृष्टान्त-उद्बोधन द्वारा। २. रौद्र रूप प्रदर्शन द्वारा। ३. रूप परिवर्तन द्वारा। ४. पागलपन के अभिनय द्वारा। ५. किसी विशेष युक्ति द्वारा। ६. समय-अन्तराल द्वारा। ७. आत्म-घात द्वारा। ८. लोक-निन्दा का भय दिखाकर । ६. पुरुषों द्वारा शील-रक्षा के उपाय । डॉ. हुकमचन्द जैम (१) दृष्टान्त-उद्बोधन द्वारा-ज्ञाताधर्म कथा के मल्ली अध्ययन क आचार्य, जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग, में विवाह के लिए आये हुए सातों राजकुमारों को एक साथ एकत्रित सुखाड़िया विश्वविद्य लय, उदयपुर, कर मल्ली स्वर्णमय प्रतिमा के दृष्टान्त द्वारा उद्बोधन करती है। र जस्थान ।) उसकी संक्षिप्त कथा इस प्रकार है (क) विदेह राजकुमार मल्ली के रूप यौवन पर मुग्ध होकर अत्यन्त लालायित होकर अनिमेष दृष्टि से उसे देखने लगे । वे सब उससे विवाह करना चाहते थे । इसके लिये वे युद्ध करने के लिए तैयार थे । तब मल्ली अपने को असहाय एवं विकट परिस्थितियों में पा स्वर्णप्रतिमा में एकत्रित सड़े हुए भोजन की दुर्गन्ध का उदाहरण प्रस्तुत कर उन्हें सम्बोधित करती हुई कहती है कि-हे देवानुप्रियो ! इस स्वर्णमयी प्रतिमा में प्रतिदिन अशन, पान, खादिम, स्वादिम आहार में से एक-एक पिण्ड डालते ऐसे अशुभ पुद्गलों का परिणमन हुआ। ( १५५ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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