Book Title: Sajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Shashiprabhashreeji
Publisher: Jain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur

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Page 585
________________ खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि बहु-पूय-असुइ-वस-मंस रुहिर-परिपुरियाण महिलाण । कज्जे किं कुणसि नरिंदं असरिस निय-कुल-कलंक ॥ तब वह राजा इस उपदेश से प्रतिबोधित हो जाता।। (घ) दृष्टान्त उद्बोधन से प्रतिबोधित नहीं होने की स्थिति में नारी एक कदम और आगे बढ़कर अर्थात् अशुचि पदार्थों को दिखाकर शील रक्षा करती हुई दिखाई देती है । उत्तराध्ययनसूत्र में राजीमती एवं रथनेमि की कथा वर्णित है। इस कथा में राजीमती पानी से भीगी हुई गुफा में प्रवेश करती है। उसके पूर्व ही रथनेमि वहाँ साधना कर रहे होते हैं । ऐसी अवस्था में राजीमती को देखकर उनकी आसक्ति तीव्र हो उठती है । तब वे राजीमती को कहते हैं : हे भद्रे ! हे कल्याणकारिणी ! हे सुन्दर रूप वाली ! हे मनोहर बोलने वालो ! हे सुन्दर शरीर वाली ! मैं रथनेमि हूँ। तू मुझे सेवन कर । तुझे किसी प्रकार की पीड़ा नहीं होगी । निश्चय ही मनुष्य जन्म का मिलना अत्यन्त दुर्लभ है। इसलिए हे भद्र ! इधर आओ। हम दोनों भोगों का उपभोग करें । फिर मुक्तभोगी होकर बाद में जिनेन्द्र के मार्ग का अनुसरण करेंगे। यह सुनकर राजमती हतप्रभ रह जाती है । वह रथनेमि को फटकारती हुई कहती है कि यदि तू रूप में वैश्रमण देव के समान और लीला-विलास में नलकूबर देव के समान हो। अधिक तो क्या यदि साक्षात् इन्द्र भी हो तो भी मैं तेरी इच्छा नहीं करती। अन्त में राजीमती रथनेमि को अपना वमन पात्र बताती हुई कहती है कि तुम इसे पी लो। तब रथनेमि कहता है कि यह अशुचि पदार्थ है। इस पर राजीमती कहती है कि तब मुनि-दशा को छोड़कर काम-वासना रूपी संसार में घृणित पदार्थ रूपी वमन को तुम क्यों पीना चाहते हो ? संयम से विचलित मनुष्य का जीवन उस हरड़ वृक्ष के समान है जो हवा के एक छोटे से झोंके से उखड़ कर नदी में बह जाता है। वैसे ही संयम से शिथिल .. होकर तुम्हारी आत्मा भी उच्च पद से नीचे गिर जायेगी और संसार ससुद्र में परिभ्रमण करती रहेगी। जइ तं काहिसि भावं जा जा दिच्छसि नारीओ। वाया-इद्धो व हडो, अट्ठिअप्पाभविस्ससि ।। -उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन २२, सैलाना, १९७४ यह कथा अन्य प्राकृत ग्रन्थों में भी कुछ हेर-फेर के साथ मिलती है। (२) रौद्ररू। प्रदर्शन द्वारा --उपदेश एवं दृष्टान्त उद्बोधन द्वारा भी यदि कामी पुरुष नहीं मानता है और बलात् शील खण्डन करना चाहता है । उस समय नारी अपना विकट रूप धारणकर गर्जना करती है और तब कामी पुरुष डरकर हट जाता है। ऐसी एक कथा आवश्यक नियुक्ति में मिलती है। चण्डप्रद्योत राजा की शिवा रानी पर उसका मन्त्री भूतदेव मोहित हो जाता है। एक बार १. जैन, प्रेम सुमन, "रोहिणी कथानक" साहित्य संस्थान, उदयपुर १९८६, पृ० २४ से २७ २. (क) उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन २२, सैलाना, १६७४ (ख) जैन, जगदीश चन्द्र, जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, चौखम्बा, वाराणसी, १९६५, पृ० २५१ ३. (क) दशवैकालिक सूत्र-२, ७-११ (ख) दशवकालिकचूर्णौ २ पृ०८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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