Book Title: Sajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Shashiprabhashreeji
Publisher: Jain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur

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Page 591
________________ खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि जैनों की दिगम्बर परम्परा के अनुसार वे ब्रह्मचारी व अविवाहित रहे। श्वेताम्बर परम्परा की शाखा के अनुसार वे भोगों के प्रति आसक्त नहीं हुए। ऐतिहासिक तथ्यों व जैन आगमों के अनुसार समरवीर नामक महासामन्त की सुपुत्री व तत्कालीन समय की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी यशोदा के साथ उनका विवाह हुआ और प्रियदर्शना नामक एक कन्या उत्पन्न हुई। तो भ० महावीर ने नारी को पत्नी के रूप में जाना। बहन सुदर्शना के रूप में बहन का स्नेह पाया और माता त्रिशला का अपार वात्सल्य का सुख देखा। अट्ठाइस वर्ष की उम्र में भ्राता से दीक्षा की अनुमति माँगी, अनुमति न मिलने पर वहन, पत्नी व अबोध पुत्री की मूक भावनाओं का आदर कर वे गृहस्थी में ही रहे। दो वर्ष तक यों योगी की भाँति निर्लिप्त जीवन जीते देख पत्नी को अनुमति देनी पड़ी। महावीर व बुद्ध महावीर व बुद्ध में यहाँ असमानता है। महावीर अपने वैराग्य को पत्नी, माँ, बहन व पुत्री पर थोप कर चुपचाप गृह-त्याग नहीं कर गये । गौतम बुद्ध तो अपनी पत्नी यशोधरा व पुत्र राहुल को आधी रात के समय सोया हुआ छोड़कर चले गये थे। सम्भवतः वे पत्नी व पुत्र के आँसुओं का सामना करने में असमर्थ रहे हों। पर बुद्ध ने मन में यह नहीं विचार किया कि प्रातः नींद खुलते ही पत्नी व पुत्र की क्या दशा होगी? इसके विपरीत महावीर दो वर्ष तक सबके बीच रहे। परिवार की अनुमति से मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी को वे दीक्षित हो गये। दीक्षा लेने के उपरान्त महावीर ने नारी जाति को मात जाति के नाम से सम्बोधित किया। उस समय की प्रचलित लोकभाषा अर्धमागधी प्राकृत में उन्होंने कहा कि पुरुष के समान नारी को धार्मिक व सामाजिक क्षेत्र में समान अधिकार प्राप्त होने चाहिये। उन्होंने बताया कि नारी अपने असीम मातृ-प्रेम से पुरुष को प्रेरणा एवं शक्ति प्रदान कर समाज का सर्वाधिक हित साधन कर सकती है। विकास की पूर्ण स्वरन्त्रता उन्होंने समझाया कि पुरुष व नारी की आत्मा एक है। अतः पुरुषों की तरह स्त्रियों को भी विकास के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता मिलनी ही चाहिये । पुरुष व नारी की आत्मा में भिन्नता का कोई प्रमाण नहीं मिलता। अतः नारी को पुरुष से हेय समझना अज्ञान, अधर्म व अतार्किक है। गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी स्वेच्छा से ब्रह्मचर्य पालन करने वाले पति-पत्नी के लिए महावीर ने उत्कृष्ट विधान रखा। महावीर ने कहा कि ऐसे दम्पत्ति को पृथक् शैय्या पर ही नहीं अपितु पृथक शयन-कक्ष में शयन करना चाहिये। किन्तु जब पत्नो पति के सन्मुख जावे तब पति को मधुर एवं आदरपूर्ण शब्दों में स्वागत करते हुए उसे बैठने को भद्रासन प्रदान करना चाहिये । क्योंकि जैनागमों में पत्नी को "धम्मसहाया" अर्थात् धर्म की सहायिका माना गया है। __वासना, विकार और कर्मजाल को काट कर मोक्ष-प्राप्ति के दोनों ही समान भाव से अधिकारी हैं। इसी प्रकार समवसरण, उपदेश, सभा, धार्मिक पर्यों में नारियाँ निस्संकोच भाग लेंगी। मध्य सभा के खुले रूप में प्रश्न पूछकर अपने संशयों का समाधान कर सकती हैं। ऐसे अवसरों पर उन्हें अपमानित ८ तिरस्कृत नहीं किया जायेगा। दासी प्रथा का विरोध उन्होंने दासी-प्रथा, स्त्रियों का व्यापार और क्रय-विक्रय रोका। महावीर ने अपने बाल्यकाल For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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