Book Title: Sajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Shashiprabhashreeji
Publisher: Jain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur

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Page 587
________________ खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि १५६ . बोली बोलती हुई भीड़ की ओर दौड़ी। दण्डरक्षक ने राजा के पास पहुंचकर सब हाल सुनाया। राजा उसे पागल मानकर छोड़ देता है । और इस प्रकार नर्मदा अपने शील को बचा लेती है । (५) किसी विशेष युक्ति द्वारा - किसी विचित्र युक्ति द्वारा भी प्राकृत साहित्य में शील रक्षा के उपाय वाले दृष्टान्त मिलते हैं । युक्तिपूर्ण तरीके से शील सुरक्षा करने की कथा कुमारपाल प्रतिबोध नामक ग्रन्थ में मिलती है । कथा इस प्रकार है एक बार अजितसेन की पत्नी शीलवती की राजा ने परीक्षा लेनी चाही । उसने एक-एक करके चार युवकों को उसके पास भेजा । उन चारों युवकों ने शीलवती से काम-भोग की प्रार्थना की। नहीं मानने पर उन चारों ने शीलवती को धमकाया। जब उसे यह अनुमान हुआ कि यह पूर्वनियोजित योजना है । इससे कभी भी शील भंग हो सकता है। तब उसने एक युक्ति का सहारा लिया। वह सहसा अपने व्यवहार में कोमल हो गयी । उसके वार्तालाप में सहज अनुराग का स्वर आ गया। उसने उन चारों युवकों को पृथक-पृथक रूप से अपनी स्वीकृति दे दी। उसने सन्ध्या के समय एक उद्यान में चारों को बुलाया गया । पूर्ण नियोजित ढंग से उसने उन चारों को एक कुए में धकेल कर बन्दी बना लिया। इस प्रकार विशेष युक्ति द्वारा उसने अपने शील की रक्षा कर ली। (६) समय-अन्तराल द्वारा–युक्ति, अभिनय, रूप परिवर्तन एवं अन्य उपायों द्वारा शील-रक्षा का कोई उपाय नहीं दिखाई देने पर नारियों द्वारा कामुक व्यक्तियों की प्रणय-याचना को स्वीकार कर उनसे कुछ समय का अवकाश माँगकर अपनी शील रक्षा की जाती थी। इस प्रकार की कथा इस प्रकार है । ज्ञाताधर्म कथा में, द्रौपदी की कथा वर्णित है जिसमें द्रौपदी राजा पद्मनाभ द्वारा अपहरण कर ली जाती है । राजा उसे अन्तःपुर में लाकर उससे कामना-प्रार्थना करता है। तब द्रौपदी पद्मनाभ से इस प्रकार कहती है हे देवानुप्रिय ! द्वारवती नगरी में कृष्ण नामक वासुदेव मेरे स्वामी के भ्राता रहते हैं । यदि वे छः महीने तक लेने के लिए यहाँ नहीं आयेंगे तो हे देवानुप्रिय ! आप जो कहेंगे वहो मैं करूंगी। इस प्रकार समय मांगने को कथाएँ परवर्ती प्राकृत साहित्य में भी मिलती है यथा(१) सती मृगावती एवं चण्डप्रद्योत की कथा । (२) तिलकसुन्दरी एवं मदनकेशरी की कथा । (३) जयलक्ष्मी एवं विजयसेन की कथा । (४) रत्नवती एवं रुद्रमंत्री की कथा ।” १. (अ) जैन जगदीश चन्द्र, नारी के विविध रूप, पृ० २६-२७ (ब) शास्त्री, नेमिचन्द्र, वाराणसी, १९६६, पृ० ४६४ २. शास्त्री राजेन्द्र मुनि, सत्यशील की अमर साधिकाए', पृष्ठ २२६ । ३. (अ) णायाधम्मकहा (१६ वाँ अध्ययन) पाथर्डी, पृ० ४६६-५०० (ब) शास्त्री, राजेन्द्र मुनि, सत्यशील की अमर साधिकाएँ, पृ० ७७.७६ । ४. वही, पृ० ११०, पर उद्धृत, आवश्यक नियुक्ति, गा०, १०४८ एवं दशव कालिक नियुक्ति-अ० १ गा० ७ ५. जैन, हुकुमचन्द, "रयणचूडरायचरियं का आलोचनात्मक सम्पादन एवं अध्ययन" थीसिस १९८३, अनु० ६६ पै० २-३। ६. प्राकृत कथा संग्रह, सूरत, १६५२, पृ० १७, गा० ६०-६५ ७. वही पृ०२ गा० ५०-६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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