Book Title: Sajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Shashiprabhashreeji
Publisher: Jain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur

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Page 581
________________ खण्ड ५ : नारी - त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि १५३ प्रभु महावीर ने चन्दना के अन्तस् को पहचाना । आध्यात्मिक पथ पर बढ़ने वाली नारी का उन्मुक्त हृदय से स्वागत किया। उन्होंने चन्दना को उसका खोया हुआ सम्मान दिया । चन्दना प्रभु के चरणों । युगों की जड़ मान्यताओं को चुनौती देकर उसे श्रमणी रूप में दीक्षित किया। उसे अपनी प्रथम शिष्या बनाया और श्रमणी संघ के नेतृत्व की बागडोर सौंपी । चन्दनबाला ने ३६ हजार श्रमणियों एवं ३ लाख से अधिक श्राविकाओं का नेतृत्व कर इस बात को प्रमाणित किया कि नारी में नेतृत्व क्षमता पुरुष से किसी प्रकार कम नहीं है । चन्दनबाला के साध्वीसंघ में पुष्पचला, सुनन्दा, रेवती, सुलसा, मृगावती आदि प्रमुख अनेक साध्वियाँ थीं । तत्त्वज्ञ श्राविका के रूप में जयन्ती का नाम बड़े गौरव से लिया जाता है । उसकी तर्क शैली बड़ी सूक्ष्म और संतुलित थी। वह अनेक बार भगवान महावीर की धर्मसभाओं में प्रश्नोत्तर किया करती थी । ज्ञान के साथ विनय उसका आदर्श था। प्रभु की वाणी पर उसे अपार श्रद्धा थी । उसका मन विरक्त था । उसने भगवान महावीर का शिष्यत्व स्वीकार किया और आर्या चन्दनबाला के पास प्रव्रजित हुई । कुछ लोगों ने नारी को विष बेलड़ी, कलह की जड़ कहकर उसकी उपेक्षा की है। उन्होंने नारी के उज्ज्वल रूप को नहीं देखा । वह युद्ध की ज्वाला नहीं, शान्ति की अमृत वर्षा है | वह अन्धकार में प्रकाश किरण है। उसने अपने बुद्धि चातुर्य और आत्मविश्वास से मानव जाति को शान्ति से जीने की कला सिखाई । वैशाली गणराज्य चेटक की पुत्री एवं वत्सराज शतानीक की पट्टमहिषी मृगावती भी अपने रूप लावण्य में अद्वितीय थी । उसके रूप पर उज्जयिनीपति चंडप्रद्योत मुग्ध था । मृगावती ने अपनी आध्यात्मिक प्रेरणा से चण्डप्रद्योत को चारित्रधर्म में स्थिर किया । तथा प्रभु महावीर की देशना सुनकर उन्हें वन्दन नमस्कार कर आर्या चन्दनबाला के पास दीक्षा अंगीकार की । एक दिन भगवान की सेवा में साध्वी मृगावती कुछ सतियों के साथ गई हुई थीं । वहाँ से लौटकर पौषधशाला में चन्दनबाला के पास आने में उन्हें सूर्यादि देवों के प्रकाश के भ्रम के कारण विलम्ब हो गया। रात्रि का अन्धकार बढ़ गया था । इस प्रकार विलम्ब से मृगावती को आते देख चन्दनबाला ने मृगावती से कहा - महाभागे ! तुम कुलीन, विनयशील और आज्ञाकारिणी होते हुए भी इतनी देर तक कहाँ रहीं ? गुरुवर्या के उपालंभपूर्ण वचन सुन मृगावती का हृदय पश्चात्ताप की ज्वाला से तिलमिला उठा । वे चन्दनबाला के चरणों में गिर पड़ीं और अपने अपराध के लिये क्षमा माँगते हुए आत्माभिमुख हो गई । आत्मचिन्तन करते-करते सती जी को कुछ ही क्षणों में केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। आर्या चन्दनबाला को जब वास्तविक स्थिति का पता चला तो उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हुआ । वे सोचने लगीं कि मैंने आज उपालम्भ देकर केवलज्ञानी मृगावती की आशातना की है । वे उनसे खमाने लगीं और आत्मालोचन करते-करते स्वयं केवलज्ञान को प्राप्त हो गईं। इस प्रकार क्षमा लेने वाली और क्षमा देने वाली दोनों ही आत्म-निरीक्षण करते-करते अपनी कर्म निर्जरा कर केवली बन गईं । सीता, द्रौपदी, दमयन्ती, अंजना आदि सतियों का जीवन चरित्र आर्य संस्कृति की एक महान थाती है । इन नारियों ने सद्गुणों के ऊर्ध्वमुखी विकास में, चारित्रिक श्र ेष्ठता में, सेवा, साधना, संयम एवं सहिष्णुता में जो आदर्श उपस्थित किया है, वह संसार में देव - दुर्लभ सिद्धि है । खण्ड ५/२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org⚫

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