Book Title: Sajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Shashiprabhashreeji
Publisher: Jain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 582
________________ १५४ जैन आगमों में वर्णित ध्यान-साधिकाएँ : डा० श्रीमती शान्ता भानावत उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अबला कही जाने वाली नारी में जो शील, संयम और शक्ति का विकास हुआ है, उसके मूल में ध्यान साधना से फलित एकाग्रता, जागरूकता और मानसिक पवित्रता का विशेष योगदान रहा है। उपर्युक्त ध्यान साधिकाओं का जीवन हमारे वर्तमान जीवन के लिये विशेष प्रेरणादायक है। आज स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में पहले की अपेक्षा काफी प्रगति हुई है। पर इस बहिर्मुखी ज्ञान से जीवन में इन्द्रिय भोगों के प्रति विशेष आकर्षण और पारिवारिक जीवन में इर्ष्या-द्वेष-कलह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि काषायिक वृतियों से उत्पन्न तनाव अधिक बढ़ा है। मन अधिक चंचल और अशांत बना है। फैशन-परस्ती, दिखावा और धार्मिक आडम्बरों में भी विशेष वृद्धि हुई है। इसका मुख्य कारण ध्यानसाधना की कमी है। तप के नाम पर भी लम्बे समय तक भूखे रहने पर अधिक बल दिया जाता है। भूखे रहने से इन्द्रियों की उत्तेजना कम होती है, शरीर के प्रति ममत्व भाव में कमी आती है पर इस लाभ का उपयोग अन्तर्मुखी बनकर कषायों को उपशांत करने, किये हुए पापों का सच्चे हृदय से प्रायश्चित्त कर उन्हें पुनः न करने, दीन-दुःखियों की सेवा करने तथा सत्-साहित्य के अध्ययन-मनन और चिन्तन में नहीं किया जाता। इसका परिणाम यह होता है कि तप ताप बनकर रह जाता है । उससे आत्मा को विशेष शक्ति और प्रकाश नहीं मिल पाता । आवश्यकता इस बात की है कि तप के साथ ध्यान साधना को विशेष रूप से जोड़ा जाय तभी व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय तनावों से मुक्त हुआ जा सकता है और सच्चे अर्थों में वास्तविक शांति का अनुभव किया जा सकता है। ० ० नारी रूप नदी सिंगार तरंगाए, विलासवेलाइ जुव्वणजलाए। के के जयम्मि पुरिसा, नारी नइए न बुड्डन्ति ।। __-इन्द्रिय पराजयशतक ३६ __ शृंगार रूप तरंगों वाली, विलासरूप प्रवाह वाली और यौवन रूप जल वाली नारी रूपी नदी में इस संसार में कौन पुरुष नहीं डूबता ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610